रात के सीने में अंतहीन है अंधकार
की गहराई, ये कैसा उत्सव है,
कैसी निष्प्राण रोशनाई,
हर तरफ है निरुद्ध
जीने की दौड़ -
धूप, जो
खड़ा
है मेरे सामने सहस्त्र मुख लिए भूख
का असुर, उसे कोई मारता नहीं,
बिखरे पड़े हैं, कितने टूटे
हुए चेहरे, कितने
ठुकराए गए
जीवित
अंग,
मंडप के द्वार में खड़े हैं न जाने - -
कितने असमय ही बूढ़ा गए
यौवन, जिनके चेहरे में
हैं सिर्फ़ राख रंग,
उपासना मंच
में है मां
मूक,
निःशब्द, त्रिनयनी निहारती है उन्हें
असहाय, और सोचती है " क्यों
इतना आयोजन, जब मेरे
अपनों को न मिल
पाए एक वक़्त
का भोजन,
फिर
मेरी पूजा का व्यर्थ है, इतना विपुल
प्रयोजन, काश ! मां के सजल
नयन का सारांश, कोई
पढ़ पाता - -
* *
- - शांतनु सान्याल
19 अक्तूबर, 2020
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हार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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