12 अक्तूबर, 2020

अविरल प्रवाह के संग - -


पारदर्शी खिलौनों की उम्र होती
है बहुत छोटी, इक ठेस ही
काफ़ी है बिखर जाने
के लिए, हाथों
के जंज़ीरों
से भींच
कर
उसने रखना चाहा था मेरे नाज़ुक
जज़्बात, कुछ एक पल काफ़ी
थे मदहोशी उतर जाने के
लिए । उठ रहे हैं न जाने
कहां से इतने उग्र
हाथों के मशाल,
कुछ एक
पल
ही अब बाक़ी हैं रात गुज़र जाने
के लिए।  ये वही लोग हैं जो
घुटनों के बल झुके रहते
हैं दबंगों के सामने,
शायद वक़्त
लगेगा
संगत का असर जाने के लिए।
मंज़िल का पता जानता है
दिगंत का धुंधला
आकाश, हम
तो हैं
बंजारे लहर, किनारों में नहीं - -
आते, रेत पे यूँ ही ठहर
जाने के लिए ।

* *
- - शांतनु सान्याल


6 टिप्‍पणियां:

  1. ये वही लोग हैं जो
    घुटनों के बल झुके रहते
    हैं दबंगों के सामने,
    शायद वक़्त
    लगेगा
    संगत का असर जाने के लिए।

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