कुछ भी नहीं चिरस्थायी, फिर इतने
सवालों के फ़ेहरिश्त किस लिए,
मौसम तो है जन्म से ही
बंजारा, आज यहाँ
तो कल जाने
कहाँ, न
भेजना मुझे कोई ख़त उड़ते पत्तों के
हमराह, मैं अभी तक हूँ मुंतज़िर
बहार का, मुझे ज़रा भी
दुःख नहीं होता,
किसी की
बेरुख़ी
से,
मेरा वजूद है फ़क़्त मिट्टी के म'यार
का, परागों की कोई सीमा नहीं,
खुलते ही गन्धकोष आते
हैं अनगिनत चाहने
वाले, कौन
कहाँ
ले जाए ख़्वाबों की गीली मिट्टी, - -
क्या पता तुम्हें है मालूम,
उस जादूगर कुम्हार
का ?
* *
- - शांतनु सान्याल
24 अक्तूबर, 2020
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 25 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंशब्दों के जादूगर की सुसज्जित शब्द विन्यास
जवाब देंहटाएंसाथ ही सार्थक रचना का समावेश
आपका असंख्य आभार महोदया - - नमन सह ।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंशब्दों की जादूगरी
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएं, मैं अभी तक हूँ मुंतज़िर
जवाब देंहटाएंबहार का, मुझे ज़रा भी
दुःख नहीं होता,
किसी की
बेरुख़ी
से,
बहुत सुन्दर... सार्थक सृजन।
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
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