09 अक्तूबर, 2020

ब्रज भोर की ओर -

जीने की अदम्य अभिलाष, हिरन के
हद ए नज़र, कुछ चाँदनी, कुछ
धुंधलके में, निःशब्द बढ़ता
हुआ शिकारी, अतृप्त
प्यास, या छद्म
सन्यास,
ख़ुद
की दहलीज़ में श्रीमंत है भिखारी । - -
कुछ असमाप्त संवाद, बिम्ब
के साथ, ताउम्र का वाद -
विवाद, अभ्र के
उपहार, हैं
जमे
हुए झुर्रियों के किनार, अघोषित युद्ध,
सहमी हुई हैं, रक्त कोशिकाएं
बेचारी। गुलाबी सुख पुनः
खोजता है, सीने के
भीतर, एक
मुट्ठी -
कच्ची धूप, कोई परिचित आवाज़ -
फिर कहती है आज, अंधेरे से
पहले लौट आना, फिर
एक रात जीने की
है तैयारी।
कोई
प्राणदायी स्पर्श फिर बढ़ा जाए उम्र
की रेखाएं, नयन, अधर, वक्ष - -
स्थल, गभीरतम हृद, कहीं
नहीं कोई कांटेदार
सीमाएं, किन्तु
निःशर्त
हो
सभी लेनदेन हमारी, ब्रज भोर की - -
ओर नज़र रहे हमारी।

* *
- - शांतनु सान्याल  


8 टिप्‍पणियां:


  1. जय मां हाटेशवरी.......

    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    11/10/2020 रविवार को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में. .....
    सादर आमंत्रित है......


    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-10-2020) को     "बिन आँखों के जग सूना है"   (चर्चा अंक-3851)     पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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