जीने की अदम्य अभिलाष, हिरन के
हद ए नज़र, कुछ चाँदनी, कुछ
धुंधलके में, निःशब्द बढ़ता
हुआ शिकारी, अतृप्त
प्यास, या छद्म
सन्यास,
ख़ुद
की दहलीज़ में श्रीमंत है भिखारी । - -
कुछ असमाप्त संवाद, बिम्ब
के साथ, ताउम्र का वाद -
विवाद, अभ्र के
उपहार, हैं
जमे
हुए झुर्रियों के किनार, अघोषित युद्ध,
सहमी हुई हैं, रक्त कोशिकाएं
बेचारी। गुलाबी सुख पुनः
खोजता है, सीने के
भीतर, एक
मुट्ठी -
कच्ची धूप, कोई परिचित आवाज़ -
फिर कहती है आज, अंधेरे से
पहले लौट आना, फिर
एक रात जीने की
है तैयारी।
कोई
प्राणदायी स्पर्श फिर बढ़ा जाए उम्र
की रेखाएं, नयन, अधर, वक्ष - -
स्थल, गभीरतम हृद, कहीं
नहीं कोई कांटेदार
सीमाएं, किन्तु
निःशर्त
हो
सभी लेनदेन हमारी, ब्रज भोर की - -
ओर नज़र रहे हमारी।
* *
- - शांतनु सान्याल
09 अक्टूबर, 2020
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जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएं
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
11/10/2020 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
https://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (11-10-2020) को "बिन आँखों के जग सूना है" (चर्चा अंक-3851) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
असंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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