रात ढलते, ज़िन्दगी चाहती है हौले
से कोई, सिरहाना संवार जाए,
उन निस्तब्ध पलों में,
निकटतम गंध
वाली कोई
चादर,
ओढ़ा जाए, इक अजीब सा स्वार्थ
होता है, झूठमूठ
के बुख़ार में,
दरअसल, ज़िन्दगी को
चाहिए कुछ दुआओं
वाले स्पर्श, कुछ
पलों की
राहत,
कोई सायादार दरख़्त पहाड़ों के -
उतार में, कभी कभी ज़िन्दगी
हो जाती है बहुत अभिमानी,
चाहती है कोई सोचे -
महसूस करे, सिर्फ़
उसी के लिए
लेकिन
हर
एक समीकरण के बराबर कुछ
न कुछ होता है,चाहे शून्य
ही क्यूँ न हो, और उसी
में समाया रहता
है परिपूरक
होने की
पूरी
कहानी, कभी कभी ज़िन्दगी हो
जाती है बहुत ही
अभिमानी।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 अक्टूबर, 2020
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जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंअच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 15 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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