31 अक्तूबर, 2020

सिर्फ़ सिर हिलाते जाएँ - -

टूटे बटन छोड़ गए धागों के ठिकाने,
अजनबी हाथ बढ़ने लगे गर्दन
की ओर, सीना ढँकने के
बहाने, मेरी दुखती
रग का पता
उन्हें
मालूम है, उंगलियों से बढ़ते बढ़ते
आस्तीन तक बढ़ गए उनके - -
तक़ाज़े, आगे अब ख़ुदा ही
बेहतर जाने,
ऐतबार
की
सतह उथली ही रहे तो अच्छा है - -
ग़र, गहराई में डूबे तो कोई
नहीं आएगा हमें बचाने,
जिनसे मिल कर
ज़िन्दगी उदास
होती है,
बार-
बार, अतीत का आईना ले जाता -
है, उन्हीं लोगों से मिलवाने,
वो ज़मीन का टुकड़ा, न
जाने कितनों ने
ख़रीदा और
बेचा है,
उसी
लावारिस ज़मीं पे मुखिया जी - -
आए हैं शिलालेख लिखवाने,
ये वही नक़ाबपोश हैं
जिन्होंने कल,
आधी रात
लूटा
है मेरे घर को, सुबह के उजाले में
आए हैं वही लोग हमदर्दी
जताने, मृत सेतु की
तरह झूलते हैं
उम्मीद
यहाँ,
न कहीं बादल, न कोई गर्जना - -
हाथों में लिए छाता, ये हैं
मशहूर भविष्यवेत्ता,
लेके आए हमें
शून्य में
इन्द्र -
धनुष को दिखलाने, टूटे बटन छोड़
गए धागों के ठिकाने।

* *
- - शांतनु सान्याल

 













10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 31 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. टूटे बटन छोड़ गए धागों के ठिकाने,
    अजनबी हाथ बढ़ने लगे गर्दन
    की ओर, सीना ढँकने के
    बहाने, मेरी दुखती
    रग का पता

    सुंदर रचना

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (01-11-2020) को    "पर्यावरण  बचाना चुनौती" (चर्चा अंक- 3872)        पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    --   
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    --
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  4. सुंदर सृजन।
    बिल्कुल सही बात कही है आपने इस रचना के माध्यम से।

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