टूटे बटन छोड़ गए धागों के ठिकाने,
अजनबी हाथ बढ़ने लगे गर्दन
की ओर, सीना ढँकने के
बहाने, मेरी दुखती
रग का पता
उन्हें
मालूम है, उंगलियों से बढ़ते बढ़ते
आस्तीन तक बढ़ गए उनके - -
तक़ाज़े, आगे अब ख़ुदा ही
बेहतर जाने,
ऐतबार
की
सतह उथली ही रहे तो अच्छा है - -
ग़र, गहराई में डूबे तो कोई
नहीं आएगा हमें बचाने,
जिनसे मिल कर
ज़िन्दगी उदास
होती है,
बार-
बार, अतीत का आईना ले जाता -
है, उन्हीं लोगों से मिलवाने,
वो ज़मीन का टुकड़ा, न
जाने कितनों ने
ख़रीदा और
बेचा है,
उसी
लावारिस ज़मीं पे मुखिया जी - -
आए हैं शिलालेख लिखवाने,
ये वही नक़ाबपोश हैं
जिन्होंने कल,
आधी रात
लूटा
है मेरे घर को, सुबह के उजाले में
आए हैं वही लोग हमदर्दी
जताने, मृत सेतु की
तरह झूलते हैं
उम्मीद
यहाँ,
न कहीं बादल, न कोई गर्जना - -
हाथों में लिए छाता, ये हैं
मशहूर भविष्यवेत्ता,
लेके आए हमें
शून्य में
इन्द्र -
धनुष को दिखलाने, टूटे बटन छोड़
गए धागों के ठिकाने।
* *
- - शांतनु सान्याल
31 अक्तूबर, 2020
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 31 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंबढ़िया है।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंटूटे बटन छोड़ गए धागों के ठिकाने,
जवाब देंहटाएंअजनबी हाथ बढ़ने लगे गर्दन
की ओर, सीना ढँकने के
बहाने, मेरी दुखती
रग का पता
सुंदर रचना
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (01-11-2020) को "पर्यावरण बचाना चुनौती" (चर्चा अंक- 3872) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल सही बात कही है आपने इस रचना के माध्यम से।
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएं