द्विधाग्रस्त थी मेरी उंगलियां, बहुत क़रीब
जा कर भी छू न सकी, तल की सजल
ज़मीं, तकती रही, शून्य आँखों
से दरवाज़े की लौह कड़ी,
बारहा मैं लौट आया
ख़ाली हाथ, कह
न सका दिल
की बात,
उतर आया सीढ़ियों से, ज़िन्दगी के ढलान
गिनते गिनते, और सोचता रहा कोई
विक्षिप्त मेघ रोक ले मेरा रास्ता,
मुझ से पूछे मिलने का सबब,
अनाहूत साँझ वृष्टि की
तरह दौड़ आए वो
बेसाख़्ता !
किंतु
कल्पनाओं के पंख होते हैं बहुत ही नाज़ुक,
झर जाते हैं निःशब्द, कोई किसी के
दस्तक का इंतज़ार नहीं करता,
वक़्त का बादशाह मांगता
है पाई पाई का अपना
हिसाब, ये वहम
तुम्हारा
है
बहुत ख़ूबसूरत किसी के लिए, जां निसार -
होना, सिक्के के दूसरी तरफ है लिखा
हुआ कि कोई किसी से अपनी
जां से ज़ियादा प्यार नहीं
करता, कोई किसी
के दस्तक का
ताउम्र
इंतज़ार नहीं करता, इंतज़ार नहीं करता।
* *
- - शांतनु सान्याल
28 अक्तूबर, 2020
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सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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