अंधकार के उस पार अब तक हैं कुछ
अधजली अनुभूति, हाड़ मांस के
साथ, सब कुछ समाप्त
नहीं होता, परिपूर्ण
पाने का मोह,
ले न जाए
तुम्हें
कहीं अनाहूत आंधियों के देश, कर
जाए तुम्हें विध्वस्त, न जाओ
इतना दूर कि कभी लौट
न सको, एक ही
जीवन में
सब
कुछ प्राप्त नहीं होता, हाड़ मांस के
साथ, सब कुछ समाप्त नहीं
होता। तुम्हारी अंतहीन
हैं ख़्वाहिश, मेरी
सीमाबद्ध हैं
नाज़ुक
गुंजाइश, न बढ़ा जाए अदृश्य रेखा
आपस की दूरियां, लम्हा लम्हा
बुझ न जाए कहीं बरसों
का राब्ता, ज़िन्दगी
की पैमाइश,
सांसों
के
बालिश्त, कच्ची धूप एक मुश्त !
हमेशा की तरह रह जायेगा
अकेला, अनजाना सफ़र
और मीलों लम्बा है
रास्ता, इस
तरह से
न टूटे आईना कि अक्स से भी न
रह पाए कोई वास्ता, बुझ
न जाए, कहीं बरसों
का राब्ता।
* *
- - शांतनु सान्याल
22 अक्तूबर, 2020
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सुन्दर गद्यगीत।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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