बेरंग पर्दों के किनार, जिनके ओट से
झांकता मध्यमवर्गीय संसार,
आज और कल के मध्य
लहरों से जूझता
हुआ नौका,
अंतिम
क्षण
ढूंढे कोई पतवार। तुम्हारी आँखों की
सुर्ख़ियां, कहती हैं कई, अनकही
दास्तां, धूल तो है महज इक
बहाना, तुम्हें यक़ीन था
कि कभी न कभी,
ज़रूर लौट
आएगा
गुज़रा हुआ, ख़ुशियों का कारवां। -
बुड्ढी के बाल की तरह होते
हैं कुछ उम्मीद, उम्र के
साथ बढ़ा जाते हैं
अधिक मिठास,
ये रात कोई
ठूंठ तो
नहीं,
कि फिर कच्ची धूप के पत्ते न उभर
पाएंगे, चलो इकट्ठा
करें दोबारा,
सभी चिल्लर ख़्वाब, सीने
के गुल्लक में, है बाक़ी
अभी तक अधूरी
प्यास, कुछ
उम्मीद,
उम्र
के साथ, बढ़ा जाते हैं कुछ अधिक -
ही मिठास।
* *
- - शांतनु सान्याल
23 अक्टूबर, 2020
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 24 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंबेरंग पर्दों के किनार, जिनके ओट से
जवाब देंहटाएंझांकता मध्यमवर्गीय संसार,
आज और कल के मध्य
लहरों से जूझता
हुआ नौका,
अंतिम
क्षण
सुंदर रचना एवं आकर्षक शब्द विन्यास
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंसुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंलाजवाब सृजन
जवाब देंहटाएंवाह!!!
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंबेहद खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंउम्दा भावाभिव्यक्ति
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएं