निस्तब्ध रात में आता है ख़ुश्बुओं का
हरकारा, हाथ में लिए हुए जुगनुओं
की कंदील, दे जाता है मां के
हाथों, दुआओं का अनंत
ज़ख़ीरा, शीतोष्ण
माटी के अंदर
अभी तक
हैं मासूम चाहतों के बीज, उत्तरोत्तर
छूट जाते हैं शैशव के सभी धूप -
छाँव, थपकियाँ भी कहीं खो
सी जाती हैं अपने आप,
नदी के सीने में उग
आते हैं रेत के
द्वीप !
ख़ुश्बुओं की जगह मेघ है अब डाकिया,
निःशब्द आता है ईशान कोण से
ले कर प्रणय पत्र, बूंदों की
भाषा में लिखी हुई
कोई अतुकांत
कविता !
शैशव और लड़कपन के बीच जीवन - -
खोजता है विलुप्त डाकख़ाना, अब
कोई किसी को ख़त लिखता
ही नहीं, शायद एक दिन
शब्द लिपि अनुभूति
खो जायेंगे सभी,
हम तुम भी
जीवित
शिलालेख न हो जाएँ कहीं, चलो फिर
एक बार डाकिए को पुकारें हम
सभी - -
* *
- - शांतनु सान्याल
08 अक्तूबर, 2020
लापता डाकखाना - - ( ९ अक्टूबर अंतराष्ट्रीय डाकखाना दिवस के उपलक्ष में )
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जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंउत्तम
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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