14 अक्तूबर, 2020

वो कहीं रुकता नहीं - -

बहुत भटका हूँ मैं ग्रीष्म की
झुलसती रातों में, कभी
आग्नेय गुफाओं में,
कभी आत्मघाती
मुहानों में,
ढूंढा है
उसे कोहरे भरे राहों में, सर्द
रात की कराहों में, डूबते
तारों के बंदरगाहों में,
वो लेकिन था मेरे
घर के बहुत
क़रीब,
पार्क के सामने, सीढ़ियों में,
नींद की अनजान पनाहों
में, उसे कुछ भी ख़बर
नहीं दुनियादारी
की, वो
कौन
है, कहाँ से आया, किसी को
कुछ भी मालूम नहीं,
उसकी दो चमकती
आंखों में डूबते -
उभरते हैं
न जाने
कितने अज्ञात उपग्रहों के -
ठिकाने, वो मुस्कुरा के
देखता है भीड़ को
कुछ बेपरवाह  
सा, और
चल
देता है अपनी राह, पुकारता
हूँ उसे " ऐ ज़िन्दगी रुको
तो सही " वो नहीं
सुनता, वो
शायद
कह
गया है अपनी बात ख़ामोश
निगाहों से, वो कदाचित
बहुत दूर जा चुका है  
समय की उग्र
प्रवाहों
से।
* *
- - शांतनु सान्याल





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