03 अक्तूबर, 2020

चिरंतन कुछ भी नहीं - -

अशांत नदी, खोजती है तट फेनिल,
ज़िन्दगी फिर चाहती है आश्रय,
नयन नीड़ के अन्तःनिल,
पुनः आज का दिन,
कह रहा है छू
न सके
मुझ को, गोधूलि में बिखर से गए
सभी पल रंगीन, तुम्हारे सभी
अभिलाष सूचि, सीने में
हैं पंजीकृत, कांधे
पर अभी तक
है तुम्हारे
निःश्वास की त्रिकोणमिति, हाथों
में शून्य आवर्त, चलो खोजें
समय के जलपात्र में
कुछ अमूल्य
कौड़ियां,
वही
स्वर्णिम पल जो खो दिए हम ने
अकारण, ग़र तुम्हें मिल जाए
तुम सहर्ष रख लेना सभी
अशरफ़ी, मुझे मंज़ूर
हैं फूटी कौड़ियां,
श्रृंगार रात
का
नहीं चिरस्थायी, अभी माथे पर
हैं रुपहली, रौशनी के झूमर,
रात ढले न हो जाए हर
चीज़ धरासायी,
यहाँ कुछ
भी
नहीं चिरस्थायी - - न तुम न ही
मैं, और नहीं शान से तना
हुआ नीला शामियाना।
* *
- - शांतनु सान्याल  

 

 



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