17 अक्तूबर, 2020

अदृश्य खूंटी से बंधा अस्तित्व - -

 

न जाने क्यूँ ज़िन्दगी घूम फिर के
सारी दुनिया, आख़िर लौट ही
आती है, उसी जगह
जहाँ उसे आने
की इच्छा
कभी
नहीं होती, चाँद के हाथों रहता है -
लहरों का नियंत्रण, रेत का
महल अपने ढहने का
कभी नहीं देता है
किसी को
कोई
निमंत्रण, ज्वार भाटों के दरमियां
अतीत के पृष्ठ, बिखरे होते हैं,
बेतरतीब, कुछ टूटे सीप,
यादों के मोती, किसी
और के क़रीब,
सीने के
अंदर,
मरुभूमि के बवंडर, भीगी पलकों में
दूर तक बिखरा होता है एक
असमाप्त खंडहर, हठात्
सभी परिचित चेहरे
लगते हैं कुछ
धुंधले
कुछ धूसर, हमेशा की तरह उभरते
हैं कोलाहल में भी एकांत के
आकाश, ज़िन्दगी लौट
आती है उसी जगह
जहाँ उसे आने
की ज़रा
भी
इच्छा नहीं होती, लेकिन चाहने से
सब कुछ नहीं मिलता, उम्र -
भर की अर्ज़ी से भी,
कहाँ मिलता है
कुछ पलों
का
अवकाश, बारम्बार अपनी धुरी पे
लौट आता है इंसान।

* *
- - शांतनु सान्याल
 



 
   

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 19 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. हार्दिक आभार - - नमन सह । शारदीय नवरात्रि की शुभकामनाएं.

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  2. सार्थक रचना।
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकानाएँ।

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    1. हार्दिक आभार - - नमन सह । शारदीय नवरात्रि की शुभकामनाएं.

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  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१९-१०-२०२०) को 'माता की वन्दना' (चर्चा अंक-३८५९) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    अनीता सैनी

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    उत्तर
    1. हार्दिक आभार - - नमन सह । शारदीय नवरात्रि की शुभकामनाएं.

      हटाएं
  4. सब कुछ नहीं मिलता, उम्र -
    भर की अर्ज़ी से भी,
    कहाँ मिलता है
    कुछ पलों
    का
    अवकाश, बारम्बार अपनी धुरी पे
    लौट आता है इंसान।
    बहुत सटीक ...सुन्दर।

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