03 अक्तूबर, 2020

होंठों के दोनों किनार - -

वसंत आए गए बहुबार, झरे पल्लव
समय के शाख से बेशुमार, फिर
भी मीठी लम्हों का स्वाद
अभी तक है गीले
होंठों के दोनोँ
किनार,
बांध के रखने की चाह में अक्सर - -
दूर होता जाए अपनापन,
जितना क़रीब जाएँ
उतना ही छूने
की इच्छा
बढ़े,
दूरत्व बढ़ते ही घिर आए असमय -
का सूनापन, कभी कभी पलकों
के बंद लिफ़ाफ़े, गुमशुदा
प्रेम पत्र के पीछे
भागे, और
कभी
हैं आमने सामने संवादविहीन हम
और तुम, चल रहे हैं अवरिल,
मौन आँखों के दरमियां
निबिड़ कथोपकथन,
निर्मेघ आकाश
फिर भी
भीग
चला है अंतर्मन, सिर्फ़ मौन आँखों के
दरमियां हैं निबिड़ कथोपकथन।
* *
- - शांतनु सान्याल

10 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार 5 अक्टूबर 2020) को 'हवा बहे तो महक साथ चले' (चर्चा अंक - 3845) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर एहसास समेटे सुंदर रचना।

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past