सिर्फ़ किनारे में डुबकी लगा कर
मझधार का अवगाहन नहीं
होता, अंदर का असुर
जब तक न हो शेष,
अतृप्त चाहों
का दहन
नहीं
होता। बाहर से वो चाहे जितना भी
ओढ़ ले गेरुआ परत, अंदर का
नील महल छुपाना आसान
नहीं, कोहरे के हटते
ही सारा शहर
था धूसर,
जो सत्य है वो अमिट है उसे किसी
भी रबर से मिटाना आसान
नहीं। तुम्हारे हाथ में है
सभी लक्षित प्रहार
बिंदु, किन्तु
ज़रूरी
नहीं
कि हर लक्ष्य हो तुम्हारा अनुगामी !
मेरे शून्य हाथ नहीं रोक सकते
तुम्हारे अट्टहास, लेकिन ये
भी सच कि बहुधा छोड़े
गए आयुध होते हैं
प्रतिगामी।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 अक्तूबर, 2020
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जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंसत्य कहीं छिपाए छिपता है । अति सुंदर ।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 08 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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