हर हफ़्ते पहाड़ी गांव में लगता है
हाट, लेन देन अपनी जगह,
कुछ निःशब्द आंखों
के विनिमय,
नदी
लहर विहीन, किनारे तब ज्वलंत
काठ, जलना बुझना अपनी
जगह, धुंआ उठता
रहा सारी रात,
विपरीत
रास्ता
बनाता है अदृश्य उड़ान सेतु, - -
सिर्फ़ बदल जाते हैं परिवेश,
नदी है अब घनीभूत,
सीने में छुपाए
रहस्य
अशेष, सुदूर चार दीवारों के पार,
उसे बहना है पहाड़ों को लांघते
हुए, सीने में सहेजे अनंत
जलधार, आकाश को
वो ललकारती
है, कराए
हर
हाल में वज्रपात, पुनः सुलग - -
उठते हैं, अधबुझे किनारे
के काठ, जमी हुई
नदी सुबह
तक
बन जाती है महानदी, दोनों - -
किनारे शांत व
सपाट ।
* *
- - शांतनु सान्याल
19 अक्तूबर, 2020
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जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह ।
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