समय की रेलगाड़ी चलती रहती
है अपनी गति से, शून्य
स्टेशनों में ऊंघते
रहते हैं छूट
गए
लम्हात, ज़िन्दगी झांकती रहती
है धुंध भरे नदी - पहाड़, छूना
चाहती है वादियों के
निःश्वास, लेकिन
हर बार वो
रहती है
ख़ाली हाथ । कोई छुअन, रंध्रों - -
के बहुत अंदर, बना जाती
है अपना घर, हम
तलाशते हैं
उसे हर
एक
मोड़ पे, हैरत से देखता है सारा - -
शहर । मंज़िल में पहुंच कर
भी हम हैं उदास, वही
भीड़ भाड़, वही
रंगीन
खड़ियों से लिखे हुए गीले अनुबंध,
खोजते हैं न जाने क्या हम
अपने आसपास । कोई
सजीव तितली,
किताबी
शब्द -
अरण्य में, पृष्ठों के बीच दब के रह
गई, कोई ख़्वाब फिर खोजता है
पुनर्जन्म का पता किसी
सजल आँख के अश्रु
संचय में। पूर्वजन्मी
शाप ! फिर
वही
लोगों की बातें अनाप शनाप, जीवन
करेगा उन विलीन नामहीन
नक्षत्रों के लिए तर्पण,
जिनका किसी से
न था उम्रभर
कोई
आलाप, वो सभी गुज़रे हैं इसी पथ
से ख़ुद को जला के,
औरों के
लिए, वक़्त की लहरों ने
मिटा दिए जिनके
क़दमों के
छाप।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 अक्तूबर, 2020
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वाह🌻
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 12 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद परम मित्र - - नमन सह ।
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