01 अक्तूबर, 2020

एकल प्रहसन - -

 हम सभी हैं राजपथ के तमाशबीन,
खड़े हैं दोनों किनारे देखने के
लिए, गणतंत्र का एकल
प्रहसन, मुखौटे में
है कहीं छिपा
हुआ
हुकूमत का असली चेहरा, हंसता -
हुआ, शहर कोतवाल तो है
बस, किसी और की
उंगलियों का,
अदना
सा
एक मोहरा, पार्श्व में अभी तक है
जलते मांस का धुआं, वज़ीरे
आला ने फिर लगाई है
बेजान जिस्म की
एक मुश्त
क़ीमत,
मुंह बंद करने का वही एक तरीक़ा
है आदिमयुगीन, हम सभी हैं
राजपथ के तमाशबीन,
अचानक दीवार
के सभी लिखे
हुए नारे,
लग
रहे है बड़े फीके फीके से, पलस्तर
से पहले गिर रहे हैं वर्णमाला  
सारे, बचाव और पढ़ाव
के सिवाय कोई
शब्द वहां
नहीं
मौजूद, कुछ हैं बाक़ी तो वो भी -
हैं अर्थहीन, हम सभी हैं
सिर्फ वस्त्र विहीन,
राजपथ पर
खड़े
मूक तमाशबीन।
* *
- - शांतनु सान्याल


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