23 अक्तूबर, 2020

आकाशगंगा की ओर - -

अद्भुत ! एक नीरवता के मध्य जीवन
उभरता है मरू अंचल से, किसी
मृत नदी की करवट की
तरह, उस जागरण
में हैं निहित
युगों का
का
विप्लव, धमनियों में है प्रवाहित पूर्व -
पुरुषों का पर्ण हरित, आकाश
निर्वाक देखता है जिसे
अक्षय वट की
तरह। एक
नन्हा
सा जलबिंदू खोजता है अर्ध चंद्राकार
अपनापन, ख़ुद को संवारने के
लिए, पथ शिशुओं की
आँखों में तैरते हैं
अनगिनत
नक्षत्र
के
आलोक, कोई हाथ तो बढ़ाये निर्मेघ -
आकाशगंगा दिखाने के लिए।
इस महानगर के अंतिम
छोर की अंध गली में
कितनी नदियां
सूख जाती
हैं, लोग
नहीं
खोज पाते कोई मर्म विज्ञानी, कितने
ही सूर्यमुखी देख नहीं पाते उगता
सूरज, जंग लगी सलाखों में
कितनी रातें घुट के मर
जाती हैं, अख़बारों
के लिए ये
कोई
अधोरेखांकित बात नहीं, दुनिया सिर्फ़
चाहती है पढ़ना रोमांचक कहानी,
काश खोज पाते जीवन के
मर्म विज्ञानी !
 
* *
- - शांतनु सान्याल  
 


 




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