ज़िन्दगी का नाम है बहना, हर हाल में
बहना, कभी ज़ेरे ज़मीं, तो कभी
चट्टानों को तोड़ते हुए, ऊँची
पहाड़ियों के धूप समेटे
हुए, कभी बादलों
के साए में,
स्मृति
चिन्ह छोड़ते हुए, पेंचदार तटबंधों के
किनारे, उम्मीद के बीज बोते
हुए, उसे गुज़रना है हर
हाल में, धूप छांव
में, भीड़ भरे
शहर
की संकरी गलियों से, निर्जन राजपथ
होकर, किसी साधु के जनशून्य
गाँव में, उसे खेलना है हर
हाल में, कभी राजा के
हार में, कभी
याचक
के तुरुप में, उसे रहना है हर हाल में -
कभी धुंधलाए अक्स में और कभी
पारदर्शी स्वरुप में, उसे बसना
है किनारे की बस्तियों में,
उसे छूना है लुप्त
शैशव की
नाज़ुक
कोंपलें, उर्ध्वमुखी करना है उन्हें भी
एक दिन, शायद उनका भी ज़िक्र
हो बरगद जैसे हस्तियों में,
मुहाने की नियति
अपनी जगह,
कभी कभी
समुद्र
ख़ुद ब ख़ुद ज़िन्दगी से मिलने आए
उसकी जगह।
* *
- - शांतनु सान्याल
01 अक्तूबर, 2020
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 01 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह।
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