जीवन निरंतर दौड़ता है, परिचित
चेहरों के पीछे, लेकिन अज्ञात
सुख हैं अश्वारोही, बैठे
हुए काठ के हिंडोले
में, अपनी ही
अक्ष में
वो
घूमता है अनवरत, अँधेरे उजाले
झूलते हैं निरंतर, समय के
हिचकोले में। अभी तक
चिपके हुए हैं, कुछ
विदित गंध
ओंठो के
दरारों
में, वादियों में लौट आया है बर्फ़
पिघलने का मौसम, शीत -
निद्रा से उभरने लगे
हैं केसर, वक्ष -
स्थल के
हिम -
किनारों में। इस रात की झोली में
है तिलस्मी छड़ी, चलों हम
करें मायावी शलभ -
रूपांतरण, न
जन्म न
मृत्यु,
न दुःख न सुख, केवल आलोक ही
आलोक में ढका हुआ सर्वांग
आवरण - -
* *
- - शांतनु सान्याल
28 अक्टूबर, 2020
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