दोनों पार सूखते जलधार, बीच
में वाक शून्यता, यही है
बंजर होता उम्र का
विस्तार, दो
चेहरे,
दो दिशाएं, विपरीत हैं करवट,
अल्बम में हैं बंद कहीं
ख़ुबसूरत दिनों
के मख़मली
सिलवट,
प्रीत
का दरख़्त खड़ा है अपनी जगह
पूर्ववत, जब मोहभंग तब
तुम हो सुजाता, और
कई जन्मों से मैं
हूँ तथागत,
मेरे दर्द
का
न बने कोई भी हिस्सेदार, - -
मैंने जान बूझ कर
किया था विष -
पान, मृत्यु
या
अमरत्व सिर्फ़ हैं धर्म के पासे,
अनंत निद्रा के बाद, प्राण
बने उन्मुक्त यायावर,
कोई नहीं जाने
उसका वास -
स्थान,
बिखरा रहे चतुष्कोणीय शुभ्र -
श्याम मोहपाश, धीरे धीरे
रंगीन मोमबत्तियों
का अवसान !
दूर तक
एक
अंतहीन ख़ामोशी, न तुम हो
खड़ी उस पार,
न मुझे
किसी का अब
रहा इंतज़ार,
दोनों
पार सिर्फ़ सूखते जलधार। - -
* *
- - शांतनु सान्याल
10 अक्तूबर, 2020
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सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद परम मित्र - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद परम मित्र - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंअसंख्य धन्यवाद - - नमन सह ।
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