31 अक्टूबर, 2020

आत्मघाती सफ़र - -

कोई नहीं जानता, क्या वे प्रमाण करना
चाहते हैं, किस देवता के सत्ता पर
है उन्हें विश्वास, या केवल
झूठी आत्म गौरव के
लिए असामयिक
प्रलय की
ओर
हैं अग्रसर, न जाने कौन सा भ्रमित - -
विचारधारा, उन्हें विषाक्त पथ
की ओर लिए जा रही है,
ये उनका है अदृश्य
आत्मघाती
सफ़र !
 ये
बहुत आसान है कि जीत लें हम ज़मीं के
चंद टुकड़े, लेकिन दिलों को जीतना
बच्चों का खेल नहीं, मालूम
नहीं क्यों ये पहनना
चाहते हैं नर -
मुंडों की
माला,
ये
कैसा पंथ है जो लिखता है मासूमों के
ख़ून से विजय गाथा, परिवर्तन
को जो समाज ठुकराता है
वही असमय धूल में
मिल जाता है,
ये भ्रम
कि
कोई स्वर्ग है प्रतीक्षारत धर्म योद्धाओं
के लिए, न ले जाए इन्हें रसातल
में, वही पंथ पायेगा अमरत्व
जो मानवता का होगा
सच्चा रखवाला,
ऐसा स्वर्ग
बेमानी
है
जिसकी बुनियाद में हो, निरीह लोगों
के ख़ून से सने हुए ईंट ओ पत्थर,
ये उनका है अदृश्य
आत्मघाती
सफ़र - -

* *
- - शांतनु सान्याल





स्थायी परमिट फिर कभी - -

धूल हटाने से नहीं बदलती
चेहरे की त्रिकोणमिति,
उम्र का प्रश्न पत्र
हल करने के
लिए
चाहिए अन्तर्मन का ऐनक,
तुम हो लो अवाक, मैं
ज़िंदा हूँ सम्प्रति,
लोग कहते हैं
युवाओं
का
काम है गपशप करना, मैं -
भी कहाँ अकेला हूँ
घण्टों बतियाती
हैं मुझसे
मेरी
ख़ूबसूरत स्मृति, झुर्रियों -
का जाल तुम्हारी
नज़र का है
धोखा,
बारहा
आईने को झांकना नहीं - -
मेरी संस्कृति,
वृद्धाश्रम
का
अग्रिम टिकट तुम काट - -
कर रखो ख़ुद के
लिए अपने
पास,
मैंने अभी तक तुम्हें इस - -  
घर में स्थायी रहने
की नहीं दी है
स्वीकृति,
मैं
वक़्त से ख़ुद को बदलने - -
का अर्ज़ी नहीं दूंगा,
दरवाज़ा खुला
हुआ है
तुम्हें
भविष्य के लिए ढेरों शुभेच्छा
व प्रीति ।
* *
- - शांतनु सान्याल

 














सिर्फ़ सिर हिलाते जाएँ - -

टूटे बटन छोड़ गए धागों के ठिकाने,
अजनबी हाथ बढ़ने लगे गर्दन
की ओर, सीना ढँकने के
बहाने, मेरी दुखती
रग का पता
उन्हें
मालूम है, उंगलियों से बढ़ते बढ़ते
आस्तीन तक बढ़ गए उनके - -
तक़ाज़े, आगे अब ख़ुदा ही
बेहतर जाने,
ऐतबार
की
सतह उथली ही रहे तो अच्छा है - -
ग़र, गहराई में डूबे तो कोई
नहीं आएगा हमें बचाने,
जिनसे मिल कर
ज़िन्दगी उदास
होती है,
बार-
बार, अतीत का आईना ले जाता -
है, उन्हीं लोगों से मिलवाने,
वो ज़मीन का टुकड़ा, न
जाने कितनों ने
ख़रीदा और
बेचा है,
उसी
लावारिस ज़मीं पे मुखिया जी - -
आए हैं शिलालेख लिखवाने,
ये वही नक़ाबपोश हैं
जिन्होंने कल,
आधी रात
लूटा
है मेरे घर को, सुबह के उजाले में
आए हैं वही लोग हमदर्दी
जताने, मृत सेतु की
तरह झूलते हैं
उम्मीद
यहाँ,
न कहीं बादल, न कोई गर्जना - -
हाथों में लिए छाता, ये हैं
मशहूर भविष्यवेत्ता,
लेके आए हमें
शून्य में
इन्द्र -
धनुष को दिखलाने, टूटे बटन छोड़
गए धागों के ठिकाने।

* *
- - शांतनु सान्याल

 













30 अक्टूबर, 2020

शीर्षक विहीन - -

सभी पल थे ख़ूबसूरत, सभी गीत में थी
ज़िंदगानी, कुछ लोग हासिए में थे
खड़े, कुछ बिखरे पड़े थे फ़र्श
में बेतरतीब अधफटे -
हुए रंगीन काग़ज़,
उपहारों की
भीड़ में
कहीं
गुम थी, जन्म दिन की कहानी, सभी -
पल थे ख़ूबसूरत, सभी गीत में थी
ज़िंदगानी। न जाने क्या लिखा
था, उस समाधि स्तम्भ
के सीने में, वक़्त
की काई ने
बदल
कर
रख दिया उसका तर्जुमा, वो शख़्स जो
सितारों की तरह दिखाता था, सभी
को सुबह का रास्ता, तक़दीर
का सितारा कुछ इस
इस तरह से डूबा
कि वही आज
पूछता है
अपने
गुमशुदा घर का पता, बावन पत्तों से
बना है शीर्षक का घर, बहुत ही
नाज़ुक, ज़रा सी छुअन
ही काफ़ी है, शब्दों
के बिखराव
के लिए,
मेरा
गुनाह क्या है किसी को कुछ भी नहीं
मालूम, फिर भी लोग चल पड़े
हैं, आँख मूँद के पथराव के
लिए, ज़रा सी छुअन
ही काफ़ी है, शब्दों
के बिखराव
के लिए।

* *
- - शांतनु सान्याल  

 





29 अक्टूबर, 2020

सिमटती हुई परछाइयां - -


कुछ उजली सी रात, कुछ धुंधले से
स्पर्श, जंगली फूलों के गुच्छे,
कुछ अज्ञेय शब्दों की
सीढ़ियां, ले जाएँ
मुझे किसी
विषपायी
मुख
की ओर, अधजली सी मोमबत्तियां
कुछ उनींदी झूमर की सिहरन,
कुछ अदृश्य उंगलियों के
निशान, इक दीर्घ -
श्वास, सीने
में कहीं
थमा
हुआ सा उन्मत्त तूफ़ान, सम्मोहित
गंध, कुछ बिखरे हुए कांच के
मुहूर्त, अंतहीन धुंआ सा
उठ रहा है सुदूर नील
पर्वतों के सीने
में, धीरे -
धीरे,
तुम्हारे प्रभुत्व का साया ले चला है
मुझे, ख़ुद से बहोत दूर, कुछ
अजीब सा है, आधी रात
का सफ़र, जो सुबह
न होने की दुआ
करता है - -

* *
- - शांतनु सान्याल  





अवरोह पथ के साथी - -

अवरोह पथ में हों जब सूर्य की ताम्रवर्णी
किरण, तब साँझ के बेहद क़रीब है
ये जीवन, तुम्हारा प्रेम अभी
भी लिप्त है शिराओं के
मझधार, यद्यपि
झर चले हैं
बादामी
पत्ते,  
हवाओं के साथ क्रमशः, तुम आज भी हो
डंठल की तरह जुडी हुई, देह प्राण के
किनार, तुम्हारा प्रेम अभी भी
लिप्त है शिराओं के
गहन मझधार।
विस्मित हूँ,
ऋतु -
परिवर्तन से तुम आज भी हो बेअसर - -
तुम ने आज भी सीने से लगा
रखा है, पहली मुलाक़ात की
नेत्र स्वरलिपि !
तुम्हारा ये
प्रेम है
मेरे कल्पनाओं से परे, ख़ुद को उजाड़ -
कर ऐसा अनंत प्रेम, मैंने चाहा न
था, जो भी हो, मैं आज भी
नहीं चाहता, ह्रदय दुर्ग
से तुम्हारी मुक्ति,
तुम्हारे बंदी -
गृह से
ही
जाते हैं सभी मोक्ष के रास्ते, मृत्यु के
बाद भी ख़त्म नहीं होती ये  जन्म
जन्मांतर की अनुरक्ति, मैं
आज भी नहीं चाहता,
ह्रदय दुर्ग से
तुम्हारी
मुक्ति।

* *
- - शांतनु सान्याल
 




28 अक्टूबर, 2020

आलोकमय जीवन - -

जीवन निरंतर दौड़ता है, परिचित
चेहरों के पीछे, लेकिन अज्ञात
सुख हैं अश्वारोही, बैठे
हुए काठ के हिंडोले
में, अपनी ही
अक्ष में
वो
घूमता है अनवरत, अँधेरे उजाले
झूलते हैं निरंतर, समय के
हिचकोले में। अभी तक
चिपके हुए हैं, कुछ
विदित गंध
ओंठो के
दरारों
में, वादियों में लौट आया है बर्फ़
पिघलने का मौसम, शीत -
निद्रा से उभरने लगे
हैं केसर, वक्ष -
स्थल के
हिम -
किनारों में। इस रात की झोली में
है तिलस्मी छड़ी, चलों हम
करें मायावी शलभ -
रूपांतरण, न
जन्म न
मृत्यु,
न दुःख न सुख, केवल आलोक ही
आलोक में ढका हुआ सर्वांग
आवरण - -

* *
- - शांतनु सान्याल  

 

 

दस्तक का इंतज़ार -

द्विधाग्रस्त थी मेरी उंगलियां, बहुत क़रीब
जा कर भी छू न सकी, तल की सजल
ज़मीं, तकती रही, शून्य आँखों
से दरवाज़े की लौह कड़ी,
बारहा मैं लौट आया
ख़ाली हाथ, कह
न सका दिल
की बात,
उतर आया सीढ़ियों से, ज़िन्दगी के ढलान
गिनते गिनते, और सोचता रहा कोई
विक्षिप्त मेघ रोक ले मेरा रास्ता,
मुझ से पूछे मिलने का सबब,
अनाहूत साँझ वृष्टि की
तरह दौड़ आए वो
बेसाख़्ता !
किंतु
कल्पनाओं के पंख होते हैं बहुत ही नाज़ुक,
झर जाते हैं निःशब्द, कोई किसी के
दस्तक का इंतज़ार नहीं करता,
वक़्त का बादशाह मांगता
है पाई पाई का अपना
हिसाब, ये वहम
तुम्हारा
है
बहुत ख़ूबसूरत किसी के लिए, जां निसार -
होना, सिक्के के दूसरी तरफ है लिखा
हुआ कि कोई किसी से अपनी
जां से ज़ियादा प्यार नहीं
करता, कोई किसी
के दस्तक का
ताउम्र
इंतज़ार नहीं करता, इंतज़ार नहीं करता।  

* *
- - शांतनु सान्याल   

 
 
 

27 अक्टूबर, 2020

शेषप्रान्त कहीं नहीं - -

पूर्व से पश्चिम तक, आम्र कुञ्ज से
थूअर तक, शिराओं से हृदपिंड
तक, जीवन का कोई
शेषप्रान्त नहीं,
कहाँ किस
मोड़
पर छोडूं तेरा हाथ, सोच के डरता हूँ,
हर तरफ है घना कोहरा, हर
तरफ हैं अदृश्य जालों
के तंतु, किधर से
बचा कर
तुझे
निकालें, इस आख़री प्रहर का कोई
उपांत नहीं, ये प्रेम है या दैहिक
अधिकरण कहना है बहुत
कठिन, विच्छेद की
सोच से भी
होती
है
इक अजीब सी सिहरन, तुम सीख
लो, लॉग आउट से लॉग इन, जो
कुछ है इस पल के ख़ाते में
है बंद, क्या खोया,
क्या पाया, कुछ
भी इसके
उपरांत
नहीं, जीवन का कोई शेषप्रान्त नहीं,
उड़े थे सभी उत्तरायण सफ़र
में एक संग, लिए रंगीन
सपनों के पंख, नभ -
पथ में कौन
किस  
तरफ़ मुड़ा कहना है मुश्किल, तारों
से लटकते
मांझों को शायद
मालूम हो उनका पता,
लेकिन छूना नहीं
उनको, वो
स्थिर
हो कर भी शांत नहीं, जीवन का - -
कोई शेषप्रान्त नहीं।

 * *
- - शांतनु सान्याल
 

 

26 अक्टूबर, 2020

अंकगणित के बाहर - -

उड़ता हुआ कोई ख़त, ड्रोंगो की तरह
कलाबाज़ी दिखाता हुआ, मेघ को
अपने हाथों, धीरे से सरकाता
हुआ, उतरे कभी अधपके
धान के दहलीज़,
ओस की बूंदों
से है लिखा
हुआ,
मेरे घर का पता, सुख गंध को तुम -
बांट देना सभी को, चाहे हो
कोई अनाम परिंदा, या
सदियों से मौन
खड़ा, मेड़ों
पर एक
टक
देखता मेरा मित्र बिजूका ! दुःख की
तलछट रहने देना, जीवन नदी
के अतल में, बिखेर देना
ख़ुशियों की हेमंती
धूप, नभ - जल -
स्थल में,
वो
शून्य, रिक्त लिफ़ाफ़ा है, मुझे मंज़ूर,
जो दे आया हो, तमाम उदास
चेहरों को, ख़ुशियां भरपूर,
खोल दी है, आज मैंने
बंद मुट्ठी, हालांकि
तिर्यक रेखाओं
के सिवा
यहाँ कुछ भी नहीं, विकल्प है तुम्हारे
उँगलियों के अग्र भाग, निःस्व
होना भी, आत्म सुख से
कुछ कम नहीं,
समय की
तीस्ता
नहीं
रूकती किसी के लिए, सभी अंकीय -
वस्त्र, उतार कर मैंने ली है गहन
डुबकी, उभर गया तो सुबह
मिलेंगे, ग़र डूब गया
तो मेरी नियति।
* *
- - शांतनु सान्याल













25 अक्टूबर, 2020

तमसो मा ज्योतिर्गमय - -

नक्षत्रों का महोत्सव ख़त्म हो चुका,
छायापथ में खो गए सभी जाने
अनजाने तारों के उजाले,
दिगंत की दहलीज़
में कौन देता
है जीर्ण
हाथों
से दस्तक, फूटते भी नहीं क्यों - -
मेरी ओंठों से दग्ध शब्दों के
छाले, मैं बारहा चाहता
हूँ कि तुम्हें गहरी
नींद आए, न
देख पाओ
तुम
धूसर आकाश का फीकापन, टूट
जाएँ सभी मेघदर्पण, लेकिन
तुम्हारी ज़िद के आगे
पराजित हैं सभी
दक्ष के आहुति
अगन, तुम
हर हाल
में
लौट आती हो जीवन यज्ञ के - -
हवाले, बारम्बार तुम्हारा
नव सृजन, बारम्बार
जल विसर्जन,
फिर भी
तुम
कहती हो " असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय ॥"

* *
- - शांतनु सान्याल
   


 
 

24 अक्टूबर, 2020

जादूगर का पता - -

कुछ भी नहीं चिरस्थायी, फिर इतने
सवालों के फ़ेहरिश्त किस लिए,
मौसम तो है जन्म से ही
बंजारा, आज यहाँ
तो कल जाने
कहाँ, न
भेजना मुझे कोई ख़त उड़ते पत्तों के
हमराह, मैं अभी तक हूँ मुंतज़िर
बहार का, मुझे ज़रा भी
दुःख नहीं होता,
किसी की
बेरुख़ी
से,
मेरा वजूद है फ़क़्त मिट्टी के म'यार
का, परागों की कोई सीमा नहीं,
खुलते ही गन्धकोष आते
हैं अनगिनत चाहने
वाले, कौन
कहाँ
ले जाए ख़्वाबों की गीली मिट्टी, - -
क्या पता तुम्हें है मालूम,
उस जादूगर कुम्हार
का ?

* *
- - शांतनु सान्याल






पुरातन कथा नए जिल्द में - -

इस मायावी शहर से निकलती नहीं
कोई चोरगली, खोजता हूँ मैं,
आधी रात, कोहरे में
तैरता हुआ एक
मुट्ठी, नील -
आकाश,
यूँ तो,
तुम हो, मेरे सांसों के बेहद क़रीब, -
फिर भी ज़िन्दगी, छूना
चाहती है, उड़ते हुए
ज्वलंत फ़ानूस,
कुछ ओस
में भीगे
हुए
सुरभित आभास। कहाँ पर जा उतरती
हैं ये प्रणय सीढ़ियां, धुंध में गुम हैं
हिमगिरि की चोटियां, तुम्हारे
सारे देह में हैं टिमटिमाते
जुगनुओं के लिबास,
कहाँ पर है इस
सफ़र का
अंतिम
सिरा, मुझे नहीं ज़रा भी उसका, कोई
एहसास। तुम्हारा निशांत से पूर्व
यूँ वन्य लता हो कर, जिस्म
ओ रूह को जकड़ लेना,
तोड़ देता है ऊँचे
चिनार का
अदृश्य
सन्यास, स्वर्ण हिरण की तरह रात्रि
धीरे - धीरे, देहान्तर की ओर है
अग्रसर, क्षितिज का कोई
अनाम तारा लिखता
है रात की कहानी,
मैं और तुम
वही
पुरातन दो चरित्र हैं अपनी जगह - -
सुबह के जिल्द में हैं बंद, कुछ
ख़ूबसूरत लम्हों के अज्ञात
विन्यास।

* *
- - शांतनु सान्याल

 

23 अक्टूबर, 2020

पुनर्संग्रह - -

बेरंग पर्दों के किनार, जिनके ओट से
झांकता मध्यमवर्गीय संसार,
आज और कल के मध्य
लहरों से जूझता
हुआ नौका,
अंतिम
क्षण
ढूंढे कोई पतवार। तुम्हारी आँखों की
सुर्ख़ियां, कहती हैं कई, अनकही
दास्तां, धूल तो है महज इक
बहाना, तुम्हें यक़ीन था
कि कभी न कभी,
ज़रूर लौट
आएगा
गुज़रा हुआ, ख़ुशियों का कारवां। -
बुड्ढी के बाल की तरह होते
हैं कुछ उम्मीद, उम्र के
साथ बढ़ा जाते हैं
अधिक मिठास,
ये रात कोई
ठूंठ तो
नहीं,
कि फिर कच्ची धूप के पत्ते न उभर
पाएंगे, चलो इकट्ठा
करें दोबारा,
सभी चिल्लर ख़्वाब, सीने
के गुल्लक में, है बाक़ी
अभी तक अधूरी
प्यास, कुछ
उम्मीद,
उम्र
के साथ, बढ़ा जाते हैं कुछ अधिक -
ही मिठास।

* *
- - शांतनु सान्याल
     


 

आकाशगंगा की ओर - -

अद्भुत ! एक नीरवता के मध्य जीवन
उभरता है मरू अंचल से, किसी
मृत नदी की करवट की
तरह, उस जागरण
में हैं निहित
युगों का
का
विप्लव, धमनियों में है प्रवाहित पूर्व -
पुरुषों का पर्ण हरित, आकाश
निर्वाक देखता है जिसे
अक्षय वट की
तरह। एक
नन्हा
सा जलबिंदू खोजता है अर्ध चंद्राकार
अपनापन, ख़ुद को संवारने के
लिए, पथ शिशुओं की
आँखों में तैरते हैं
अनगिनत
नक्षत्र
के
आलोक, कोई हाथ तो बढ़ाये निर्मेघ -
आकाशगंगा दिखाने के लिए।
इस महानगर के अंतिम
छोर की अंध गली में
कितनी नदियां
सूख जाती
हैं, लोग
नहीं
खोज पाते कोई मर्म विज्ञानी, कितने
ही सूर्यमुखी देख नहीं पाते उगता
सूरज, जंग लगी सलाखों में
कितनी रातें घुट के मर
जाती हैं, अख़बारों
के लिए ये
कोई
अधोरेखांकित बात नहीं, दुनिया सिर्फ़
चाहती है पढ़ना रोमांचक कहानी,
काश खोज पाते जीवन के
मर्म विज्ञानी !
 
* *
- - शांतनु सान्याल  
 


 




22 अक्टूबर, 2020

अधजली अनुभूति - -

अंधकार के उस पार अब तक हैं कुछ
अधजली अनुभूति, हाड़ मांस के
साथ, सब कुछ समाप्त
नहीं होता, परिपूर्ण
पाने का मोह,
ले न जाए
तुम्हें
कहीं अनाहूत आंधियों के देश, कर 
जाए तुम्हें विध्वस्त, न जाओ
इतना दूर कि कभी लौट
न सको, एक ही
जीवन में
सब
कुछ प्राप्त नहीं होता, हाड़ मांस के
साथ, सब कुछ समाप्त नहीं
होता। तुम्हारी अंतहीन
हैं ख़्वाहिश, मेरी
सीमाबद्ध हैं
नाज़ुक  
गुंजाइश, न बढ़ा जाए अदृश्य रेखा
आपस की दूरियां, लम्हा लम्हा
बुझ न जाए कहीं बरसों
का राब्ता, ज़िन्दगी
की पैमाइश,
सांसों
के
बालिश्त, कच्ची धूप एक मुश्त !
हमेशा की तरह रह जायेगा
अकेला, अनजाना सफ़र
और मीलों लम्बा है
रास्ता, इस
तरह से
न टूटे आईना कि अक्स से भी न
रह पाए कोई वास्ता, बुझ
न जाए, कहीं बरसों
का राब्ता।

* *
- - शांतनु सान्याल  



   

 



बाइस्कोप - -

गिरते पत्तों के शब्द सुन पाओगे
बहुत क़रीब, जब चेहरे में
उभर आएंगे, लकीरों
के रेगिस्तान,
आरशी का
नगर
अचानक लगेगा जनशून्य, पारद
विहीन नीला आसमान ।
उंगलियों के अग्र भाग
में है कोई सोने की
काठी, कभी
वृद्ध सीने
पर
दुआओं के छुअन तो आज़माओ,
कुछ सहयात्री पीछे कहीं छूट
गए हैं, रात ढलने में
अभी वक़्त है
बाक़ी,
कुछ देर के लिए ठहर तो जाओ ।
मुझे मालूम है, हर तरफ़
है चुप्पी, लेकिन
इतनी
ख़ामोशी भी ठीक नहीं कि दम
ही निकल जाए,आनेवाली
सुबह के इंतज़ार में
यूँ रतजगा
ठीक
नहीं, कल की चाहत में कहीं - -
आज का दिन हाथों से यूँ
ही न फिसल जाए ।
राजा निर्वस्त्र
है, ये सभी
को है
पता, सभी लगे हैं बांधने प्रसंसा
में पुल, कि कितना महीन
है आवरण, वो तुतली
ज़बान है, किधर
जिसने
दिखाया था उसे, नन्हें हाथों से
वास्तविकता का दर्पण !

* *
- - शांतनु सान्याल

21 अक्टूबर, 2020

दहलीज़ की तख़्ती - -

पेड़ पर बांधे गए धागे हवा उड़ा
ले गई, कुछ रहा बाक़ी,
तो वो थी मन्नतों
की परछाई,
सीढ़ियों
का माया जाल ले डूबा किनारे
पर, घुटनों तक पानी का
अनुमान, ले गया
अथाह गहराई
तक ।
वो शख़्स जो हथेली देख कर
उम्र की लंबाई करता
रहा बयां, ख़ुद
को काल के
हाथों
बचा न सका, लतीफ़े की तरह
हंसते हंसाते वो कच्ची धूप
से गर्म लू हो गया,
लेकिन, एक
पल भी
ख़ुद
को कभी दिल खोल के हँसा
न सका। इस उम्मीद में
कि कोई आएगा
लौट कर !
हमने
उम्र भर दहलीज़ पर चिपका
रखा था आईने की गवाही,
वो मेरे अच्छे दिनों
का दोस्त था,
फिर भी
नहीं
लौटा, इबारतों को ढूंढता हूँ
मैं कोरे पन्ने में, यूँ ही
बार बार, जबकि
ओस की
बूंदों
में घुल चुके हैं अहसास की
स्याही,किसे याद रहता
आईने की गवाही।

* *
- - शांतनु सान्याल


20 अक्टूबर, 2020

इत्रदान - -

 फ़र्श में बिखरे हुए हैं कांच के ख़्वाब,
और मेज पर कुछ इत्र की बूंदें !
उंगलियों में बींधे हैं किसी
के प्रगाढ़ नुकीले स्पर्श,
जगाता हूँ मैं ख़ुद
को आधी -
रात,
नीम बेहोशी से, फिर किसी ने कहा
है बहुत कुछ, वक़्त को रोक कर,
बेहर्फ़, ख़मोशी से। अजीब
सा इक गहरा सुकून
है किसी की गर्म
सांसों में, रूह
बोझिल
लौट
आती है बारहा, बेजान जिस्म को -  
जिलाने के लिए, दवा ओ दुआ
के दरमियां है, बहुत थोड़ा
सा फ़ासला, लेकिन  
कोई अक्सर
आता है
इन
दोनों के बीच से निकल कर, मुझे
दर्द से मुकम्मल निजात
दिलाने के लिए,
बेजान इस
जिस्म
को  
जिलाने के लिए। समेटता हूँ मैं - -
अपना वजूद, रखता हूँ फिर
एक नया ख़ाली इत्रदान
मेज के ऊपर, कोई
ख़ुश्बू मेरे सीने
से पार हो
कर,
भर जाती है ज़िन्दगी का सूनापन
दूर तक - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 




 

तुम्हारी आँखों से देखेंगे - -

कुछ भी न मिल पाएगा, चाहो तो ढूंढ लो,
कुंडी विहीन है, जीवन का संदूक, बस
कुछ है तो बाट जोहते अंधियारे,
तह किए हुए कुछ पुराने
गंध की किताबें,
कुछ उतरती
धूप की
टूटी
मेहराबें, झांकते हैं रिश्तों के कुछ काग़ज़ी
फूल, उड़ रहे हैं पीले पत्ते, बेतरतीब
से बिखर चलें हैं ख़तों के टुकड़े,
कोई चल रहा है एकाकी,
रेल की पटरियों के
सहारे, सिर्फ़   
कुछ है
तो
बाट जोहते अंधियारे। तुम्हारे चश्में का
नंबर ज़रूर अलहदा है लेकिन, सच
है, कि वो भी नहीं बदल सकते
सामने का परिदृश्य, हम
ज़िन्दगी किसी और
से बदल, तो नहीं
सकते, फिर
भी किसी
रोज़,
तुम्हारी आँखों से नयी सुबह देखेंगे
अवश्य, अभी तो लेकिन नहीं
बदल सकते सामने का
परिदृश्य।

* *
- - शांतनु सान्याल   
 

 
 
 
 


 

कहाँ है जलप्रदेश - -

सिमटा हुआ है नदी का किनारा, बालुओं
के बहुत अंदर हैं जल प्रदेश, अभी है
मध्य रात्रि का उफान, सुदूर
उपनगर में, किसी जन -
शून्य, प्लेटफॉर्म
में बैठा हुआ
है कोई
मासूम बेचारा, सिमटा हुआ है नदी का
किनारा। ज़िन्दगी अपने आप में
ख़ुद को समेटती है, क़रीब
ही कुंडली मार के सो
रहा है, रोआं
विहीन
श्वान, प्रहरी की नज़र में है आश्रय देने
का सशर्त चारा, मौन महसूल की
अदायगी, ज़िन्दगी खोजती
है बचने के रास्ते, टूटी
पसलियां, भंग मेरु
दंड लिए स्वप्न
खोजते हैं
चिल्लर
पैसों की तरह बिखरे हुए कुछ चांदनी के
कण, ऊंघती हुई लहूलुहान ज़िन्दगी
देखती है, पूर्व दिशा से आती
हुई द्रुतगामी रेलगाड़ी,
आकाश अभी है
भस्मरंगी,
सूर्य
को जागने में है देरी, श्वान एक आंख से
दे रहा है पहरेदारी, उम्मीद विध्वस्त
नहीं होती, क्या हुआ कि जीवन
है अभी सर्वहारा, सिमटा
हुआ है नदी का
किनारा !

* *
- - शांतनु सान्याल

 
 

19 अक्टूबर, 2020

शाश्वत प्रकाश - -

 

वो लुप्त है अंतर्मन में कहीं और नयन -
खोजें उसे धुंध भरी राहों में, एक
मृगजल है; मेरी अंतहीन
अभिलाषा, सब कुछ
है आसपास
लेकिन
ह्रदय ढूंढ़े उसे धूमिल अरण्य के बीच, न
अदृश्य, न ही उजागर वो है हर
सांस के लेखाचित्र में
निहित, केवल
चाहिए
स्व प्रतिबिम्ब का गहन अवलोकन, वो
चेतना जो पढ़ पाए व्यथित मन
की भाषा, जो हो घुलनशील
हर चेहरे के ख़ुशी
और दुःख
में डूब कर, जीवन चाहे वो शाश्वत - -
सत्य का प्रकाश, जो दे जाए
चिरस्थायी दीप्ति,
अंतर तमस
पाए -
अनंतकालीन मुक्ति, जन्म जन्मान्तर
से परिपूर्ण मोक्ष प्राप्ति - -
* *
- शांतनु सान्याल

त्रिनयनी के अश्रु - -

रात के सीने में अंतहीन है अंधकार
की गहराई, ये कैसा उत्सव है,
कैसी निष्प्राण रोशनाई,
हर तरफ है निरुद्ध
जीने की दौड़ -
धूप, जो
खड़ा
है मेरे सामने सहस्त्र मुख लिए भूख
का असुर, उसे कोई मारता नहीं,
बिखरे पड़े हैं, कितने टूटे
हुए चेहरे, कितने
ठुकराए गए
जीवित
अंग,
मंडप के द्वार में खड़े हैं न जाने - -
कितने असमय ही बूढ़ा गए
यौवन, जिनके चेहरे में
हैं सिर्फ़ राख रंग,
उपासना मंच
में है मां
मूक,
निःशब्द, त्रिनयनी निहारती है उन्हें
असहाय, और सोचती है " क्यों
इतना आयोजन, जब मेरे
अपनों को न मिल
पाए एक वक़्त
का भोजन,
फिर
मेरी पूजा का व्यर्थ है, इतना विपुल
प्रयोजन, काश ! मां के सजल
नयन का सारांश, कोई
पढ़ पाता - -

* *
- - शांतनु सान्याल


 
 

निःशब्द विनिमय - -

हर हफ़्ते पहाड़ी गांव में लगता है
हाट, लेन देन अपनी जगह,
कुछ निःशब्द आंखों
के विनिमय,
नदी
लहर विहीन, किनारे तब ज्वलंत
काठ, जलना बुझना अपनी
जगह, धुंआ उठता
रहा सारी रात,
विपरीत
रास्ता
बनाता है अदृश्य उड़ान सेतु, - -
सिर्फ़ बदल जाते हैं परिवेश,
नदी है अब घनीभूत,
सीने में छुपाए
रहस्य
अशेष, सुदूर चार दीवारों के पार,
उसे बहना है पहाड़ों को लांघते
हुए, सीने में सहेजे अनंत
जलधार, आकाश को
वो ललकारती
है, कराए
हर
हाल में वज्रपात, पुनः सुलग - -
उठते हैं, अधबुझे किनारे
के काठ, जमी हुई
नदी सुबह
तक
बन जाती है महानदी, दोनों - -
किनारे शांत व
सपाट ।

* *
- - शांतनु सान्याल








18 अक्टूबर, 2020

भूमिगत जल स्रोत - -

वेदनाओं के परत, बंद पलकों में
भस्मीभूत हैं अंजन की तरह,
उस अंधकार कोठरी में
ज़िन्दगी को मिलते
हैं, कुछ पल
जीने के
लिए,
वो कोई सान्त्वना है या वन्य - -
सम्मोहन, कुछ भी नाम
दे दो, लेकिन उसे
झुठलाना भी
आसान
नहीं,
कुछ पल अप्रत्याशित होते हैं, - -
अवर्णित सृजन की तरह।
उस विजनप्रदेश में
हैं, सिर्फ़ कांटे -
दार विष -
लता,
उस मरुद्यान की खोज में लोग
अक्सर भूल जाते हैं, अपने
घर का पता, फिर भी
हम पालते हैं बड़ी
ही जतन से
अंतर्मन
में
मृगतृषा, तर्क ले जाता है हमें - -
बहुत दूर, लेकिन श्रद्धा
खोज ही लेती है हर
हाल में भूमिगत
जल स्रोत !

* *
- - शांतनु सान्याल  



जीवन का अनुक्रम - -

 

मुझे तुम चाह कर भी क़रीब ला न सकोगे,
उस सुनहरे चतुष्कोणीय फ्रेम में ढाई
शब्द को बिठाना आसान नहीं,
हर एक कोण में छुपी है
वास्तविकता की
कील, देखने
में वो
शब्द हैं बहुत ख़ूबसूरत, छूना चाहोगे भी  -
अगर, उस अतल तक पहुंच न
पाओगे, मुझे तुम चाह कर
भी अपने क़रीब ला न
सकोगे। हदे नज़र
तक मैंने देखा
है उसे लौट
जाते,
वो शायद हसीन गुज़रा हुआ वक़्त था - -
मेरा, एक बार भी मुड़ कर न देखा
मुझे, ज़िन्दगी किसी विदूषक
से कम नहीं, आँखों की
नमी देख कर भी
लोगों की
हंसी
न थमी, बारिश में भीगता रहा देर तक, -
उसके अलावा न था वहां कोई। इस
दुनिया में शायद मैं ही नहीं
एक व्यतिक्रम, हालात
के हाथों न जाने
कितने बन
जाते
हैं विषम, धूप छाँव के बीच ऊपर नीचे -
चलता रहता है, जीवन का
अनुक्रम।

* *
- - शांतनु सान्याल

 
 
 
 

17 अक्टूबर, 2020

अदृश्य खूंटी से बंधा अस्तित्व - -

 

न जाने क्यूँ ज़िन्दगी घूम फिर के
सारी दुनिया, आख़िर लौट ही
आती है, उसी जगह
जहाँ उसे आने
की इच्छा
कभी
नहीं होती, चाँद के हाथों रहता है -
लहरों का नियंत्रण, रेत का
महल अपने ढहने का
कभी नहीं देता है
किसी को
कोई
निमंत्रण, ज्वार भाटों के दरमियां
अतीत के पृष्ठ, बिखरे होते हैं,
बेतरतीब, कुछ टूटे सीप,
यादों के मोती, किसी
और के क़रीब,
सीने के
अंदर,
मरुभूमि के बवंडर, भीगी पलकों में
दूर तक बिखरा होता है एक
असमाप्त खंडहर, हठात्
सभी परिचित चेहरे
लगते हैं कुछ
धुंधले
कुछ धूसर, हमेशा की तरह उभरते
हैं कोलाहल में भी एकांत के
आकाश, ज़िन्दगी लौट
आती है उसी जगह
जहाँ उसे आने
की ज़रा
भी
इच्छा नहीं होती, लेकिन चाहने से
सब कुछ नहीं मिलता, उम्र -
भर की अर्ज़ी से भी,
कहाँ मिलता है
कुछ पलों
का
अवकाश, बारम्बार अपनी धुरी पे
लौट आता है इंसान।

* *
- - शांतनु सान्याल
 



 
   

वर्षा वनों के यात्री - -

न जाने किस दिगंत में खो गए वो सभी
वृष्टि वन के यात्री, दूर अरण्य में
उभर रहे हैं अग्निरेखाएं
सर्पाकार, महुआ
फूल झर
चलें
है असमय ही, न जाने कौन थे वे महत
मानव, जिन्होंने कहा था " इंसानियत
से बढ़ कर कुछ भी नहीं" न जाने
किस दुनिया के थे, वे लोग
जिन्होंने बोया था
ज्वलंत ज़मीं
पर एक
मुट्ठी
सजल सपनों के बीज, जीवन के पुष्प
वीथिकाओं में गहराया था सघन
मेघों का आकाश, सोचने में
अच्छा ही लगता है
काश उनकी
सपनों
के
बीज अंकुरित होते, किन्तु वो अंतःनील  
बारिश वाष्पित हो, न जाने कहाँ
विलीन हो गई, सीने का
पिंजर यथावत रहा
झुलसता मरू -
धरा,
असमाप्त दहन चिरस्थायी, हज़ार फणों
की रात्रि, दंशित, घर्षित, शोषित
निष्प्राण सा जीवन, प्रभात
यहाँ है प्रतिबंधित,
तमाम रात
क्रय
विक्रय, बाह्य जगत में महा अंधकार - -
सिर्फ़ निःशब्द  हाहाकार, शेष प्रहर
के आकाश कुसुम करते हैं मूक
अट्टहास, कितने ही सीप,
शंख, निर्वस्त्र देह,
मुखौटे, भंग
मेरुदंड
बिखरे पड़े रहते हैं जनसमुद्र के किनारे,
कौन किस की ख़बर लेता है, धीरे
धीरे समुद्र की लहरें  सरक जाती
हैं तट से बहुत दूर, जाने
अनजाने कहानियों
के पृष्ठों में खो
जाते हैं
तमाम चेहरे, परित्यक्त पृथ्वी के अंतिम
छोर में, काश, वृष्टि वन के यात्री फिर
लौट आएं एक बार - -

* *
- - शांतनु सान्याल

15 अक्टूबर, 2020

बूंदों के लिबास - -

कई बार जी चाहता है, समय को बांध दें,
किसी रंगीन पतंग के साथ, उड़ा
दें, महानगर के आकाश,
काट दें, निरर्थक
सिलेबस
की
डोरी, उड़ने दें ज़िन्दगी को उन्मुक्त नील
मलंग के साथ। कई बार मन करता
है, दौड़ कर जाएँ, सुदूर बर्फ़ की
वादियों में, हटा दें सभी
श्वेत अवसाद की
परतें, झांक
कर
देखें, उसके सीने की हिमनदी और कुछ
नग्न चिनार, ज़िन्दगी को गले
लगाएं, किसी और ढंग के
साथ। कभी कभी
दिल करता
है उतार
आएं
सभी ज़ख्मों के लिबास, ओढ़ लें सारे -
जिस्म पर जलप्रपात, उभरने दे
दिल की गहराइयों से कोई
इंद्रधनुष अकस्मात !
बूंदों के पैरहन
हों, हज़ार
रंग
के साथ, भीगने दें ज़िन्दगी को किसी
अवमुक्त सारंग के साथ - -

* *
- - शांतनु सान्याल

14 अक्टूबर, 2020

परिपूरक समीकरण - -

रात ढलते, ज़िन्दगी चाहती है हौले
से कोई, सिरहाना संवार जाए,
उन निस्तब्ध पलों में,
निकटतम गंध
वाली कोई
चादर,
ओढ़ा जाए, इक अजीब सा स्वार्थ
होता है, झूठमूठ
के बुख़ार में,
दरअसल, ज़िन्दगी को
चाहिए कुछ दुआओं
वाले स्पर्श, कुछ
पलों की
राहत,
कोई सायादार दरख़्त पहाड़ों के -
उतार में, कभी कभी ज़िन्दगी
हो जाती है बहुत अभिमानी,
चाहती है कोई सोचे -
महसूस करे, सिर्फ़
उसी के लिए
लेकिन
हर
एक समीकरण के बराबर कुछ
न कुछ होता है,चाहे शून्य
ही क्यूँ न हो, और उसी
में समाया रहता
है परिपूरक
होने की
पूरी
कहानी, कभी कभी ज़िन्दगी हो
जाती है बहुत ही  
अभिमानी।

* *
- - शांतनु सान्याल
 



 


 
 

वो कहीं रुकता नहीं - -

बहुत भटका हूँ मैं ग्रीष्म की
झुलसती रातों में, कभी
आग्नेय गुफाओं में,
कभी आत्मघाती
मुहानों में,
ढूंढा है
उसे कोहरे भरे राहों में, सर्द
रात की कराहों में, डूबते
तारों के बंदरगाहों में,
वो लेकिन था मेरे
घर के बहुत
क़रीब,
पार्क के सामने, सीढ़ियों में,
नींद की अनजान पनाहों
में, उसे कुछ भी ख़बर
नहीं दुनियादारी
की, वो
कौन
है, कहाँ से आया, किसी को
कुछ भी मालूम नहीं,
उसकी दो चमकती
आंखों में डूबते -
उभरते हैं
न जाने
कितने अज्ञात उपग्रहों के -
ठिकाने, वो मुस्कुरा के
देखता है भीड़ को
कुछ बेपरवाह  
सा, और
चल
देता है अपनी राह, पुकारता
हूँ उसे " ऐ ज़िन्दगी रुको
तो सही " वो नहीं
सुनता, वो
शायद
कह
गया है अपनी बात ख़ामोश
निगाहों से, वो कदाचित
बहुत दूर जा चुका है  
समय की उग्र
प्रवाहों
से।
* *
- - शांतनु सान्याल





13 अक्टूबर, 2020

जन्म से पूर्व और जन्म के बाद भी - -

वृष्टि थमते ही फिर मुखर है कोलाहल,
अस्फुट शब्दों का अर्थ मैं खोजता
हूँ, तुम्हारे स्पंदन में, कुछ
उष्ण बूंदें जो तुम्हारी
पलकों से टूट
कर, रुकी
सी हैं
कहीं मेरे कांधे के हाड़ पर, न जाने क्या
रहस्य है, इस आबद्ध क्रंदन में,
अस्फुट शब्दों का अर्थ मैं
खोजता हूँ, तुम्हारे
स्पंदन में।
न जाने
क्या
ढूंढते हैं सर्दियों की छुईमुई धूप में वो -
बेकल आँखें, तमाम रात यूँ तो
सुलगता रहता है, सीने के
अंदर, कोई मंथर वेग
से मधुर अलाव,
जन्म से
पूर्व
और जन्म के बाद भी जिसे पाने की हो
अंतहीन अभिलाष, शब्दों से मुक्त,
व्याकरण विहीन है वो प्राणों
का लगाव, सुलगता
रहता है, सीने के
अंदर, कोई
मंथर
वेग से मधुर अलाव।

* *
- - शांतनु सान्याल
 


चौहद्दी पार - -

पूछता है जीवन जल दर्पण से
अपना लुप्त स्रोत, कौन हूँ
मैं, कहाँ है मेरा पैतृक
ग्राम, वो सिर्फ़
सुनता है
और
देखता है किनारे की ओर, उठ
रहा है जहाँ केवल धुंआ
कुछ चकमक पत्थर
की चिंगारियां
कुछ
अतृप्त चाहतों के आयाम। - -
आकाश तट में नहीं
रुकता नक्षत्रों का
समारोह,
तुम्हारे
सभी
प्रश्नों का कोई औचित्य नहीं,
कठपुतली से ज्यादा
तुम्हारी कोई
पहचान
नहीं,
डोरी वाला भी कौन है मुझे
मालूम नहीं सिर्फ़ दूर
तक है गहराया
हुआ तुम्हारा
मोह
केवल मोह । जिज्ञासा ख़ुद
को पाती है बहुत ही
असहाय, कहती
है जीवन से
अभी
तुम्हारे प्रश्नों में जवाब - -
पाने की गहराई नहीं,
लौट जाओ साँझ
बाती से पहले,
अभी तक
हैं क़ैद
चहारदीवारी में तुम्हारे सभी
ख़्वाहिशों के बागान और
टूटे कांच के नुकीले
पहरेदार, तुम
अभी भी
हो
छायापथ के पथिक तुम्हारी -
अपनी कोई परछाई
नहीं।
* *
- - शांतनु सान्याल


12 अक्टूबर, 2020

मुमकिन नहीं लौटना - -

एक सिरे से बुनो ख़्वाब, तो दूसरा
सिरा अपने आप उधड़ जाए,
ज़िन्दगी का ताना-बाना
किसी पहेली से कम
नहीं, अभी अभी
जो है मेरे
हथेली
के बीच एक छोटी सी बूंद, पलक
झपकते कहीं वाष्प बन कर
न उड़ जाए। वक़्त की
छुअन छोड़ जाती
है तन मन में
अनेकों
निशानियां, कभी टाट के बिस्तर
देते हैं मरमरी शीतलता और
कभी आग उगलती हैं
झाड़ फ़ानूस की
परछाइयां।
ये वही
वयोवृद्ध रास्ता है जो नदी घाट -
की सीढ़ियों से उतर कर
भूल जाता है अपना
ठिकाना, जल -
गर्भ में
हो
कदाचित परिपूर्ण शांति, कोलाहल
से मुक्ति, किनारे के बाती -
स्तम्भ उसे बुलाते हैं
झिलमिलाते हुए,
बिम्बों के
सहारे,
वो
बहुत ख़ुश है अपने इस निमज्जन
में, वो नहीं चाहता लौट जाना,
उसे याद भी नहीं अतीत
का कोई ठिकाना।
* *
- - शांतनु सान्याल  


 
   

अग्नि वलय के पार - -

बचपन से उम्र के आख़री पड़ाव
तक श्रेणी भेद मिट न
सका, सूती कपड़ा
बल्कि अमीरों
का शौक़
बन
गया, रफू वाले रिश्तों को हाथ -
से ढकने की अब ज़रूरत
नहीं। वही तने हुए
वक़्त के तंबुओं
में जागती
है रातें,
घूमती हुई रंगीन तख़्ती पर वही
चाकुओं की बौछार, उनके
लिए आजन्म सुरक्षित
है दर्शकों की पहली
क़तार, सभी
जानते
हैं उतरन की चमक, हर एक -
को परिचय देने की अब
ज़रूरत नहीं । दायरा
घटाना या बढ़ाना
उनके बाएं
हाथ का
है खेल, उनका हर एक क़दम -
है उनका अपना संविधान,
अभी तक है ज़िंदा
हमारा भी
आत्म -
सम्मान, हर एक से सलाह - -
लेने की अब ज़रूरत
नहीं । ये वही
लोग हैं
जो
डूबते जहाज को सब से पहले
छोड़ जाते हैं,ये वही लोग
हैं जो ख़ुद क़ानून
बना कर
सरे -
आम तोड़ जाते हैं, टेरिलीन - -
का ज़माना गुज़र गया,
इनसे डरने की अब
ज़रूरत नहीं ।
* *
- - शांतनु सान्याल



अविरल प्रवाह के संग - -


पारदर्शी खिलौनों की उम्र होती
है बहुत छोटी, इक ठेस ही
काफ़ी है बिखर जाने
के लिए, हाथों
के जंज़ीरों
से भींच
कर
उसने रखना चाहा था मेरे नाज़ुक
जज़्बात, कुछ एक पल काफ़ी
थे मदहोशी उतर जाने के
लिए । उठ रहे हैं न जाने
कहां से इतने उग्र
हाथों के मशाल,
कुछ एक
पल
ही अब बाक़ी हैं रात गुज़र जाने
के लिए।  ये वही लोग हैं जो
घुटनों के बल झुके रहते
हैं दबंगों के सामने,
शायद वक़्त
लगेगा
संगत का असर जाने के लिए।
मंज़िल का पता जानता है
दिगंत का धुंधला
आकाश, हम
तो हैं
बंजारे लहर, किनारों में नहीं - -
आते, रेत पे यूँ ही ठहर
जाने के लिए ।

* *
- - शांतनु सान्याल


11 अक्टूबर, 2020

काश कुछ पल और ठहरते - -

अभी तक है गहन अंधकार, कुछ शून्य
आँखों के निःशब्द आविष्कार, अभी
भी बहुत कुछ कहना है बाक़ी,
मायावी रात की कितनी
अनकही गल्प -
कहानी,
कुछ नग्न सत्य के उपसंहार, अभी तक
है गहन अंधकार। अभी तक हो तुम
विभ्रांत, अंतःस्थल का ठिकाना
अब तक तुम नहीं खोज
पाए, बहुत दूर है
तुम से
आलोकित प्रणय संसार, अभी तक
है केवल अंध स्पर्श की अनुभूति,  
अभी तक नहीं खुली है अंदर
की जड़ता, सीने के
बहुत भीतर
मौजूद
हैं
भष्मीभूत अग्नि का दमित हाहाकार,
अभी तक है गहन अंधकार। अभी
तक तुम आत्मसात हो न
पाए, इसलिए बुझ
चले हो अंतिम
प्रहर से
पहले,
छोड़ चले हो अकारण ही कुछ धुएं के
मेघ, कुछ धुंधले क्षितिजों के
अतिरिक्त भार, अभी
तक है दूर तक  
अंतहीन
अंधकार।

* *
- - शांतनु सान्याल  


शाश्वत अर्घ्य - -

बहुत कुछ रहता है अप्रकाशित
आंखों के नेपथ्य में, वृथा ही
डूबोते हैं हाथ अपना
अंधेरे के तल घर
में, कुछ भी
नहीं
होता गुप्त दर्पण के नग्न सत्य
में, वो ढूंढते हैं एक सौ आठ
पद्म, देवी के श्रृंगार के
लिए, एक मूठ
अन्न का
दान
ही काफ़ी है किसी क्षुधित शिशु
के जीवन अर्घ्य में, कितना
भी ऊंचा कर जाएं
देवालय का
शिखर,
छू
न पाएगा दिव्य सोपान, ग़र -
पुरोहित की नज़र में उच्च
नीच का हो असर,
राख़ से अधिक
कुछ न
होगा
अवशेष, उसके धार्मिक सभी
कृत्य में, बहुत कुछ रहता
है अप्रकाशित आंखों
के नेपथ्य
में।

* *
- - शांतनु सान्याल


जीवित दहन - - (राष्ट्रीय बालिका दिवस के उपलक्ष में )

गर्भ से मृत्यु तक, उसे सिर्फ़ है लड़ना
अस्तित्व बचाने के लिए नहीं,
बल्कि सारी पृथ्वी को
ख़ूबसूरत बनाने
के लिए,
ये
वही उपेक्षित पौध है जो दरख़्त बन के
देती है दुआओं भरी छाया, कभी
मरियम है और कभी महा -
माया, रखती है अपने
कोख़ में प्रजन्म
बारम्बार,
ये
वही सुरसरि है जहाँ से गुज़रता है सारा
संसार, ये वही मिट्टी है जिसके सीने
में दबी हुई है मानवता के सहस्त्र
अंकुरण, ये वही जीवनदायी
उंगलियां हैं जिन्हें थाम
के हम सीखते हैं
संस्कार का
अनुकरण,
लेकिन अफ़सोस है कि हम ही उसका
करते हैं जीवित दहन - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 

10 अक्टूबर, 2020

सूखते किनारों के मध्य - -

दोनों पार सूखते जलधार, बीच
में वाक शून्यता, यही है
बंजर होता उम्र का
विस्तार, दो
चेहरे,
दो दिशाएं, विपरीत हैं करवट,
अल्बम में हैं बंद कहीं
ख़ुबसूरत दिनों
के मख़मली
सिलवट,
प्रीत
का दरख़्त खड़ा है अपनी जगह
पूर्ववत, जब मोहभंग तब
तुम हो सुजाता, और
कई जन्मों से मैं
हूँ तथागत,
मेरे दर्द
का
न बने कोई भी हिस्सेदार, - -
मैंने जान बूझ कर
किया था विष -
पान, मृत्यु
या
अमरत्व सिर्फ़ हैं धर्म के पासे,  
अनंत निद्रा के बाद, प्राण
बने उन्मुक्त यायावर,
कोई नहीं जाने
उसका वास -
स्थान,
बिखरा रहे चतुष्कोणीय शुभ्र -
श्याम मोहपाश, धीरे धीरे
रंगीन मोमबत्तियों
का अवसान !
दूर तक
एक
अंतहीन ख़ामोशी, न तुम हो
खड़ी उस पार,
न मुझे
किसी का अब
रहा इंतज़ार,
दोनों
पार सिर्फ़ सूखते जलधार। - -
* *
- - शांतनु सान्याल




कोई निशानी नहीं - -

समय की रेलगाड़ी चलती रहती
है अपनी गति से, शून्य
स्टेशनों में ऊंघते
रहते हैं छूट
गए
लम्हात, ज़िन्दगी झांकती रहती
है धुंध भरे नदी - पहाड़, छूना
चाहती है वादियों के
निःश्वास, लेकिन
हर बार वो
रहती है
ख़ाली हाथ । कोई छुअन, रंध्रों - -
के बहुत अंदर, बना जाती
है अपना घर, हम
तलाशते हैं
उसे हर
एक
मोड़ पे, हैरत से देखता है सारा - -
शहर । मंज़िल में पहुंच कर
भी हम हैं उदास, वही
भीड़ भाड़, वही
रंगीन
खड़ियों से लिखे हुए गीले अनुबंध,
खोजते हैं न जाने क्या हम
अपने आसपास । कोई
सजीव  तितली,
किताबी
शब्द -
अरण्य में, पृष्ठों के बीच दब के रह
गई, कोई ख़्वाब फिर खोजता है
पुनर्जन्म का पता किसी
सजल आँख के अश्रु
संचय में। पूर्वजन्मी
शाप ! फिर
वही
लोगों की बातें अनाप शनाप, जीवन
करेगा उन विलीन नामहीन
नक्षत्रों के लिए तर्पण,
जिनका किसी से
न था उम्रभर
कोई
आलाप, वो सभी गुज़रे हैं इसी पथ
से ख़ुद को जला के,
औरों के
लिए, वक़्त की लहरों ने
मिटा दिए जिनके
क़दमों के
छाप।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

















09 अक्टूबर, 2020

ब्रज भोर की ओर -

जीने की अदम्य अभिलाष, हिरन के
हद ए नज़र, कुछ चाँदनी, कुछ
धुंधलके में, निःशब्द बढ़ता
हुआ शिकारी, अतृप्त
प्यास, या छद्म
सन्यास,
ख़ुद
की दहलीज़ में श्रीमंत है भिखारी । - -
कुछ असमाप्त संवाद, बिम्ब
के साथ, ताउम्र का वाद -
विवाद, अभ्र के
उपहार, हैं
जमे
हुए झुर्रियों के किनार, अघोषित युद्ध,
सहमी हुई हैं, रक्त कोशिकाएं
बेचारी। गुलाबी सुख पुनः
खोजता है, सीने के
भीतर, एक
मुट्ठी -
कच्ची धूप, कोई परिचित आवाज़ -
फिर कहती है आज, अंधेरे से
पहले लौट आना, फिर
एक रात जीने की
है तैयारी।
कोई
प्राणदायी स्पर्श फिर बढ़ा जाए उम्र
की रेखाएं, नयन, अधर, वक्ष - -
स्थल, गभीरतम हृद, कहीं
नहीं कोई कांटेदार
सीमाएं, किन्तु
निःशर्त
हो
सभी लेनदेन हमारी, ब्रज भोर की - -
ओर नज़र रहे हमारी।

* *
- - शांतनु सान्याल  


चतुर्थ स्तम्भ का ढहना - -

कौन असली है और कौन नक़ली, कहना
है बहुत मुश्किल, सभी जैसे फ़रेब
की दुकान लिए बैठे हैं, ऊँची
आवाज़ वाला गधे को
घोड़ा बता के बेच
गया, और
घोड़ा
वाला देखता ही रह गया, कहाँ है चतुर्थ
स्तम्भ कोई मुझे दिखाए, कोहरा है
घना, न सीढ़ियां नज़र आती हैं
न ही छत, किस मुंडेर पर
दुबका हुआ है प्रजा -
तंत्र, ज़रा मुझे
भी कोई
दिखाए, हर तरफ़ है नीलामी का जूनून -
लेकिन देशभक्ति का मुल्लमा है
ज़बरदस्त, चिल्ला चिल्ला
कर लोग दिखा रहे हैं
अपनी तथा -
कथित
वफ़ादारी का सबूत, इस गोरखधंधे में है
सभी लिप्त, सर्वोच्च दंडनायक हों,
या मोहल्ले का एक पसली
दबंग, हर कोई बन
चला है समाज -
सुधारक,
अब
कहाँ से लाएं अष्टमुखी अंकुश, लोग - -
चले जा रहे हैं न जाने कहाँ, झुकी
कमर लिए हुए, शहर - दर -
शहर, सतत पलायन,
वही आदिम -
युगीन
ख़ानाबदोश की तरह जीने की मज़बूरी।

* *
- - शांतनु सान्याल

08 अक्टूबर, 2020

लापता डाकखाना - - ( ९ अक्टूबर अंतराष्ट्रीय डाकखाना दिवस के उपलक्ष में )

निस्तब्ध रात में आता है ख़ुश्बुओं का  
हरकारा, हाथ में लिए हुए जुगनुओं
की कंदील, दे जाता है मां के
हाथों, दुआओं का अनंत
ज़ख़ीरा, शीतोष्ण  
माटी के अंदर
अभी तक
हैं मासूम चाहतों के बीज, उत्तरोत्तर
छूट जाते हैं शैशव के सभी धूप -
छाँव, थपकियाँ भी कहीं खो
सी जाती हैं अपने आप,
नदी के सीने में उग
आते हैं रेत के
द्वीप !
ख़ुश्बुओं की जगह मेघ है अब डाकिया,
निःशब्द आता है ईशान कोण से
ले कर प्रणय पत्र, बूंदों की
भाषा में लिखी हुई
कोई अतुकांत
कविता !
शैशव और लड़कपन के बीच जीवन - -
खोजता है विलुप्त डाकख़ाना, अब
कोई किसी को ख़त लिखता
ही नहीं, शायद एक दिन
शब्द लिपि अनुभूति
खो जायेंगे सभी,
हम तुम भी
जीवित
शिलालेख न हो जाएँ कहीं, चलो फिर
एक बार डाकिए को पुकारें हम
सभी - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

   
 


 




बेघर उम्मीद - -

नाहक बांधना चाहा था उसके उच्छृंखल
आवेग को, वो कोई वन्य नदी थी
बहती रही, अपने इच्छा के
अनुसार, या तो मेरे
सीने के तटबंध
थे खोखले
माटी के
बने, जो रोक न पाए उसके उन्मुक्त भार,
वो कोई प्रेम था या एकाकी मुनिया का
लौह सलाखों से वार्तालाप, बहुत
सोचने के बाद मैंने खोल
दी पिंजरे की कील,
लेकिन उसने
उड़ने से
साफ़
किया इंकार, कदाचित ये था उसका -
बरसों से दबा अहंकार, जीवन का
चित्रांकन इतना भी सहज
नहीं, परत दर परत
खुलते जाएँ कुछ
न कुछ सजल
आँखों के
अध्याय, सुबह थी प्याज रंगी आकाश,
सिर्फ़ धुंआ ही धुंआ था जब डूबा
संतप्त सूर्य, गंगा के उस
पार, सांध्य आरती
के भीड़ में तब
जीवन था
बहुत
अकेला, खोजता रहा अपनी गुमशुदा - -
छाया, अंधकार में तमाम चेहरे
क्रमशः  विलीन हो गए,
आकाश में उभर
चले तारक -
पुंज, फिर
सजेगी
रात अपने ज़ख्मों के हाथ, सुबह को छूने
की कोशिशें नाकाम हर बार, बेघर
उम्मीद हमेशा की तरह बैठा
रहेगा दिगंत के कगार।

* *
- - शांतनु सान्याल

07 अक्टूबर, 2020

प्रतिगामी प्रहार - -

सिर्फ़ किनारे में डुबकी लगा कर
मझधार का अवगाहन नहीं
होता, अंदर का असुर
जब तक न हो शेष,
अतृप्त चाहों
का दहन
नहीं
होता। बाहर से वो चाहे जितना भी
ओढ़ ले गेरुआ परत, अंदर का
नील महल छुपाना आसान
नहीं, कोहरे के हटते
ही सारा शहर
था धूसर,
जो सत्य है वो अमिट है उसे किसी
भी रबर से मिटाना आसान
नहीं। तुम्हारे हाथ में है
सभी लक्षित प्रहार
बिंदु, किन्तु
ज़रूरी
नहीं
कि हर लक्ष्य हो तुम्हारा अनुगामी !
मेरे शून्य हाथ नहीं रोक सकते
तुम्हारे अट्टहास, लेकिन ये
भी सच कि बहुधा छोड़े
गए आयुध होते हैं
प्रतिगामी।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 

अविरत यात्रा - -

चाहे जितनी बार पाल उतारे जाएँ,
जीवन के मस्तूल हवाओं के
संग, मेल - जोल रखना
जानते हैं, ज्वार -
भाटों का
ग्राफ
कभी नहीं थमता, सितारे हर हाल
में वादों का मोल रखना जानते
हैं, वो चाहे जितनी बार मुझे
सूली पर चढ़ा आएं, मेरा
प्रारब्ध मुझे मरने
नहीं देगा, वो
हाथ की
लकीरों में पुनर्जन्म का रहस्यमय
घोल रखना जानते हैं, वो सभी
मुलायम साबुन जो सिर्फ़
झाग के सिवा कुछ
नहीं दे सकते,
उनसे
बचने के लिए मेरी चाहतें देश की -
माटी अनमोल रखना जानते
हैं, मुझे मालूम है उनकी
मायावी व्यूह रचना,
मेरे हृद पिंड
अभेद्य
खोल रखना जानते हैं, जीवन के -
मस्तूल, हवाओं के संग, मेल -
जोल रखना जानते हैं,
* *
- - शांतनु सान्याल
 

06 अक्टूबर, 2020

स्वर्ग का आसमान - -

अभी कहाँ थमा है za का समर,
शंख, तुरही, मृदंग सभी हैं केवल
कुछ प्रहरों के उल्लास, जहाँ
तुम्हारा खींचा गया
लज्जा वसन,
वहीं पर है
मौजूद
अग्नि
कुंड का निःश्वास। न कोई पार्थ न कोई
पार्थ सारथी, इस धरा के वक्ष में
आज भी हैं भूमिगत अनल
प्रवाह, अग्नि स्नान ही
आख़री शस्त्र है
तुम्हारे हाथ,
दूर तक
कोई
नहीं है उद्धारक तुम्हारा, तुम्हें रखना है
प्रज्वलित भस्म अपने माथ। अभी
तक है सड़ा गला, वही अपघटित  
जंग लगा अभिज्ञान, तुम्हारे
अस्थि पिंजर के गर्भ -
गृह में है लुप्त
नव युग
का
आह्वान, तुम्हारे पैरों तले है स्वर्ग का
आसमान।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 

05 अक्टूबर, 2020

झरते अमलतास - -

इसी मोड़ पर कहीं खो गई गुलमोहरी
साँझ, इसी धुंधलके में कहीं छूट
गया अपनों का हाथ, फिर
भी ज़िन्दगी करती है
अथक तलाश,
बुझ जाएं
तो बुझ
जाएँ, तुम्हारे शहर के सभी कृत्रिम - -
प्रकाश, अंतरतम के द्वीपों में
जीवित हैं अभी तक, कुछ
जुगनुओं के जलते -
बुझते हुए -
प्रभास,
ढलती धूप के पास वसीयत के लिए -
कुछ भी नहीं, अतीत के पृष्ठों
में हैं बंद, पानी जहाज़ के
सीने से उठता हुआ
धुंआ, और
आकाश
से
झरता हुआ अमलतास, यूँ भी आते
जाते मुट्ठी खुली ही रहती है, ये
और बात है कि तुमने मुझे
जकड़ रखा है, बहुत ही
नज़दीक, अपने
दिल के
पास,
लौट के कोई आए या न आए किसी
को कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ता, वही
आदिमयुगीन ध्रुव तारा, वही
ज़िन्दगी का अंतहीन
उत्तरी आकाश ।
* *
- - शांतनु सान्याल   
 




 




04 अक्टूबर, 2020

सुबह की तलाश - - ( विश्व पर्यावास दिवस के उपलक्ष में )

समुद्र से अंतरिक्ष तक है विषाक्त
कुहासा, गर्भस्थ स्वप्न  
खोजते हैं जन्म से
पहले ही मृत
नदी का
वक्षस्थल, हर तरफ है सिर्फ़ आज
के लिए, जीने की अंतहीन
जद्दोजहद, बस्तियों में
बढ़ते जा रहे हैं कल
के बृहत् नगरीय  
मरुस्थल।
कहाँ
गए न जाने सभी वो सार्वभौमिक
संकल्प, शुद्ध हवा पानी के
संग जीने का एक मुश्त
अधिकार, अब तो
मरने के बाद
भी दो गज़
ज़मीं
का, नहीं दिखता कोई विकल्प। -
दाहभूमि हो या कोई क़ब्रगाह,
या शहर का गन्दा फुटपाथ,
इंसान मजबूर है वहीँ
पर अपना आश्रय
बनाने के
लिए,
उसी मलिन मृत नदी के सीने में
खो जाते हैं, न जाने कितने
मासूम चेहरे, और जो
किसी तरह शैशव
लांघते हुए
पहुँचते
हैं
कोहरे में डूबी हुई सीढ़ियों तक -
वो वहीँ सो जाते हैं थक हार
के, उन्हें कोई सुबह नहीं
आती, फिर से
जगाने के
लिए।
* *
- - शांतनु सान्याल
 
 
 




















अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past