भू तल में अभी तक है मेरा निवास,
एक खिड़की, टूटी हुई आराम -
कुर्सी, माटी की सुराही,
बेरंग, कांसे का
एक पैतृक 
गिलास, 
गली के उस मोड़ से उभरती है उस 
फेरीवाले की आवाज़, खिड़की 
के समीप रूकती है कुछ 
देर, क्रमशः किसी 
दूरगामी रेल 
की तरह, 
हाथों 
पर जल्दी से कोई रख जाता है कटे 
हुए अमरुद की डलियां, मिर्च 
और काले नमक के साथ, 
उस पार की दुनिया 
अब धुंधली हो 
चली हैं,
वैसे 
भी अब कुछ रहा ही नहीं देखने के 
लिए अपने आसपास, भू तल 
में अभी तक है, मेरा 
निवास। कहने 
को मेरा घर 
यूँ तो है 
तीन 
मंज़िला, पसंदीदा छत ही पहले -
पहल मुझसे छूटा, संभवतः 
बचपन भी किसी कोने 
में हो दुबका पड़ा, 
कुछ यादें 
छत पर 
आ 
गिरती हैं, उड़ते हुए जीर्ण पल्लवों 
की तरह, ये सीढ़ियां काश पुल 
होतीं, ताकि मैं ख़ुद को 
उस कोने में ढूंढ 
पाता, प्रथम -
तल और 
द्वितीय तल, कब मुझसे दूर सरक 
गए, याद नहीं, बस, आते जाते 
सदर दरवाज़े की मुलाक़ात 
अभी तक है बाक़ी,
जन्म से ले 
कर मृत्यु 
तक, 
कहीं न कहीं, हर एक आदमी होता 
है अंदर तक एकाकी, फिर भी 
वो जीना चाहता है, एक 
नई सुबह की ख़ातिर, 
वो प्रतीक्षा करता 
है रोज़ उस 
फेरीवाले 
का, 
उसका चेहरा है ताज़ातरीन सुबह 
का अख़बार, जिसे वो शुरू से 
अंत तक पढ़ना चाहता 
है अनेकों बार ,वो 
जानना चाहता 
है, मोड़ के 
उस 
पार की दुनिया का रहस्य अनायास, 
भू तल में अभी तक है, मेरा 
निवास। दरअसल, इन 
मंज़िलों में पौधों 
को पालते 
पोसते  
हम ख़ुद को ही सिंचना जाते हैं भूल,
जब अपना ख़्याल आता है, तब 
तक सूख चुका होता है, 
सारा दरख़्त, और 
टहनियों में 
लिपटी 
होती 
हैं समय की धूल, कुछ रहता है साथ 
तो राख रंगी उन्मुक्त आकाश,  
मैं ऊपरी मंज़िलों में जाना 
भी नहीं चाहता, क्योंकि 
वहां से उतरने और 
उतारने, दोनों 
में  होगी 
मुश्किल,  
न करो मेरा स्थानांतरण जब तक 
न निकले मेरी अंतिम सांस,
भू तल में ही रहने दो 
मेरा निवास। 
* * 
- - शांतनु सान्याल 
 
 
18 दिसंबर, 2020
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वाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (20-12-2020) को "जीवन का अनमोल उपहार" (चर्चा अंक- 3921) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंरोंगटे खड़े हो गए
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सशक्त रचना
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंइतनी भवविभोर करती कविता...मन को हिला देने वाली कविता..रूह को कंपा देने वाली कविता...दिनों तक झकझाोरती रहने वाली कविता...वाह आयु,सोच,बचपन सभी का सफर कराती कविता...वाह शांतनु जी
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंमार्मिक....
जवाब देंहटाएंअंतःकरण को स्पर्श करती रचना...🙏
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन सर.... बहुत ही हृदयस्पर्शी।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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