ज्यामिति बॉक्स और ज़िन्दगी
मिलते हैं किसी परिपूरक
समीकरण की
तरह, वो
शख़्स
यूँ
तो रहता है मेरी उँगलियों के
बेहद क़रीब, फिर भी
खो जाता है नन्हें
किसी रबर
की तरह,
उसके
खो जाने और पुनः हाथ आने
के दरमियान, मैं खंगाल
जाता हूँ अंदर बाहर
सब तरफ, कुछ
पल उसके
बग़ैर
लगते हैं, किसी अधूरे सफ़र -
की तरह, कुछ लोग मिटा
कर भी दे जाते हैं,
बहुत कुछ
किसी
लौटते हुए परिश्रांत लहर की
तरह। ख़्वाबों के अंकन -
कागज़, अक्सर
ही कोरे
रह
जाते हैं, वास्तविकता की - -
खुरदरी धरातल पर,
रंगीन पेंसिलों
के नोक
टूट
जाते हैं, गोधूलि से पहले बढ़
जाती हैं परछाइयों की
दुनिया, मध्य रात
तक पहुँचते -
पहुँचते
सभी
वशीकरण के जाले अपने आप
टूट जाते हैं, तमाल पात
थे, कुछ तथाकथित
आत्मीयता !
प्रयोजन
के बाद
बड़ी
ख़ूबसूरती से फेंक दिए गए, -
उतरती धूप की मंज़िल थी
घाट की सीढ़ियों तक,
कुछ देर के लिए,
ज़िन्दगी के
पल
दीवार के सहारे यूँ ही टेक दिए
गए, सुगंध तक रहा रिश्ता
मुरझाते ही सभी फूल
नदी में फेंक दिए
गए - -
* *
- - शांतनु सान्याल
13 दिसंबर, 2020
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
वाह
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति..।
जवाब देंहटाएंआपकी अनमोल टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआपकी अनमोल टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही उम्दा रचना।
जवाब देंहटाएंआज मैंने बहुत से ब्लॉग पढ़े लेकिन यहां आकर तृप्ति मिली।
कई दिनों बाद अच्छी रचना पढ़ी है।
लाजवाब।
कृपया आप मेरे ब्लॉग तक आकर अपने विचार रखें।
नई रचना- समानता
आपकी अनमोल टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही शानदार सृजन ,भाव प्रधान सुंदर अभिव्यक्ति एक अलग अंदाज है आपके लेखन में बहुत गहराई और परिपक्वता का सुंदर समन्वय है ।
जवाब देंहटाएंअभिनव।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएं