22 दिसंबर, 2020

अंकों का खेल - -

गुज़र रहा है शहर के वक्ष से होकर
विस्तीर्ण विजय जुलूस, सहस्त्र
घुड़सवार, ढोल ताशे, शंख
तुरही, आकाश से झर
रही है मोनालिसा
की वही  
चिर
परिचित रहस्यभरी मुस्कान, राज
पथ के दोनों तरफ खड़े हैं
लोग बैसाखियों के
सहारे, ख़ामोश
विस्फारित
नज़रों
से
देखते हैं शाही रथ का महाप्रस्थान।
खोजते हैं लोग पिछले पहर के
कुछ चिल्लर ख़्वाब, रास्ते
के बीचों -बीच बिखरे
पड़े हैं, केवल कुछ
बलैयां और
कुछ
निछावर के अभिमान, अपाहिज
रात देख रही है, मोनालिसा
की वही, चिर परिचित
तिलस्मी मुस्कान।
नगर सीमान्त
पर रोके
गए
हैं, ज़मीन से उठने वाले आवाज़,
इस मुल्क का क़ानून बदलता
है अंकों के खेल से, सुबह
कुछ और ही था मेरा
परिचय उनकी
नज़र में,
साँझ
ढलते ही मुझ पर है अब क़त्ल
का फ़रमान, विस्फारित
नज़रों से मैं देखता
रहा, शाही रथ
का महा -
प्रस्थान।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 



 



 


 

16 टिप्‍पणियां:


  1. ज़मीन से उठने वाले आवाज़,
    इस मुल्क का क़ानून बदलता
    है अंकों के खेल से, सुबह
    कुछ और ही था मेरा
    परिचय उनकी
    नज़र में,
    साँझ
    ढलते ही मुझ पर है अब क़त्ल
    का फ़रमान, सशक्त रचना..

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (23-12-2020) को   "शीतल-शीतल भोर है, शीतल ही है शाम"  (चर्चा अंक-3924)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  3. वाह!लाजवाब सर।
    क्या ख़ूब शब्द चित्र उकेरा है वर्तमान का।
    सादर

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  4. वाह !!बहुत खूब,लाजबाब सृजन,सादर नमन सर

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  5. सच कहा आपने सत्यता अंकों का खेल ही है सभी संवेदनाओं से दूर । बहुत सुंदर रचना हर शब्द कुछ कह रहा है।

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