15 दिसंबर, 2020

महाकाय वृक्ष - -

अक्सर, इस ऊँचे दरख़्त के नीचे
बैठ कर मैं, उसे क़रीब से
महसूस करना
चाहता
हूँ
उसकी फुसफुसाहट से ज़िन्दगी
का तत्व ज्ञान समझना
चाहता हूँ, उसकी
ऊर्ध्वमुखी
शाखा

प्रशाखाओं के आचार संहिता को
जानना चाहता हूँ, क्या वो
हर किसी को अपनी
फैलती हुई बाँहों
में, किसी
भी
भेद भाव के आश्रय देते हैं चाहे
वो कोई विक्षिप्त झंझावात
हो, या झुलसी हुई
बेघर रात हो,
मैं उसके
साए
से हो कर उसकी आन्तरभौम
दुनिया में जाना चाहता
हूँ, उसे अहसास
हो कि हम
उसके
आगे, बौने पौधों से अधिक -
कुछ भी नहीं, हम आज
भी अपनी मिट्टी से
हैं जुड़े हुए, ठीक
उसी की
तरह,  
आसमान की तलाश में हाथ
बढ़ाए हुए, उभरने दो हमें
भी सूर्य की प्रथम
किरण के
साथ,
ऊपर और ऊपर, ताकि हम भी
प्रबल प्रलय काल में खड़े
रहें अडिग अपनी
जगह, फिर भी
हे ! महत
वृक्ष,
हम तुम्हारे उपकार भुला न
पाएंगे, ये दृढ़ विश्वास
मैं तुम्हें दिलाना
चाहता
हूँ।

* *

- - शांतनु सान्याल 

18 टिप्‍पणियां:

  1. बेहतरीन सृजन । लाजवाब भावाभिव्यक्ति ।

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  2. हम तुम्हारे उपकार भुला न
    पाएंगे, ये दृढ़ विश्वास
    मैं तुम्हें दिलाना
    चाहता
    हूँ।
    उत्कृष्ट रचना माननीय।
    सादर।

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 16 दिसंबर 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (16-12-2020) को "हाड़ कँपाता शीत"  (चर्चा अंक-3917)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

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  5. बेहतरीन अभिव्यक्ति, लाजबाव सृजन,सादर नमस्कार सर

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  6. बहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन।
    सादर

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  7. सुन्दर सर्जन.... सही कहा आपने वृक्षों का उपकार कभी भी भुलाया जाना चाहिए.....

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