12 दिसंबर, 2020

छत विहीन प्रासाद - -

मेरे चारों तरफ़ था बहुत कुछ,
उखड़े हुए वयोवृद्ध दरख़्त,
प्राचीन मंदिर के भग्न
स्तम्भ, तट
बदलती
हुई
नदी, बिखरे हुए मौन शंख,
मेरे आगे था बहुत कुछ,
खुला आसमान,
निर्वासन
का
छत विहीन चौखट। मेरे
आसपास थे असंख्य
चेहरे कुछ
उजागर
कुछ
भस्म लपेटे अघोर, मेरे
सामने था रेलगाड़ी
का आख़री
डब्बा,
अज्ञात गंतव्य, अंतहीन
जीवन पथ । मेरे पीछे
छूट गईं रहस्यमयी  
नील पोखर
की शुभ्र  
कमलिनी, खजूर गुड़ की
मिठास, सूखे धान की
अपरिभाषित
सुवास,
दौड़ता रहा बेतहाशा समय
का रथ। मेरे हाथों में
बहुत कुछ था,
फिर भी
वो
शून्य ही रहा, मेरे इर्दगिर्द
थे बहुत सारे गणितज्ञ,
उम्र भर हिसाब
किताब में
लगे
रहे, फिर भी अंत्यमिल - -
ग़लत ही रहा, जिन्हें
हमने, जी जान
से चाहा, वही
लोग  
आख़िर में रहे हमसे मीलों
विरक्त, मेरे चारों
तरफ़ क्या न
था फिर
भी
ज़िन्दगी थी, हज़ार टुकड़ों में
विभक्त - -

* *
- - शांतनु सान्याल
 

 

6 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे इर्दगिर्द
    थे बहुत सारे गणितज्ञ,
    उम्र भर हिसाब
    किताब में
    लगे
    रहे, फिर भी अंत्यमिल - -
    ग़लत ही रहा, जिन्हें
    हमने, जी जान
    से चाहा, वही
    लोग
    आख़िर में रहे हमसे मीलों
    विरक्त,...।अहसासों का समंदर में ले जाती खूबसूरत रचना..।

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  2. ऐसी ही तो होती है सभी की जिंदगी।
    हर एक की जिंदगी को शब्द मिल गए है।

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