सब कुछ समाप्त कभी नहीं होता,
आदमी टूटे हुए दर्पण के
आगे फिर खड़ा
रहता है
हाथ
में लिए हुए गीली माटी का प्रलेप,
बिखरे हुए ख़्वाबों को इकट्ठा
करता है एक के बाद
एक, फिर गढ़ता
है प्रतिमा
नए
रूप रंग में, जनशून्य बन्दरगाह
में खड़ा है, आधीरात से
जलयान, लेकर
अपने वक्ष -
स्थल
में
उजालों की खेप, समुद्र को छूना
चाहता है आदमी, हाथ में
लिए हुए गीली माटी
का प्रलेप। अंध -
पलों से वो
रचता
है
भोर की लालिमा, दिगंत पार के
अनछुए प्रदेश, वो समय के
आगे फिर खड़ा होता
है पूरी तन्मयता
से, वो कहना
चाहता
है
वो विसर्जित नहीं हुआ, उसमें -
अभी तक बहुत कुछ है बाक़ी,
बार बार पराजित होने
का उसे ज़रा भी
नहीं है कोई
झेंप,
आदमी
नील
आकाश को उतारना चाहता है
अपने अंतरतम के
भीतर, हाथ में
लिए हुए
गीली
माटी का प्रलेप।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 दिसंबर, 2020
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वाह!सराहनीय सृजन सर।
जवाब देंहटाएंसादर
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंआदमी नील आकाश को उतारना चाहता है
जवाब देंहटाएंअपने अंतरतम के भीतर,
हाथ में लिए हुए गीली माटी का प्रलेप।
हृदयग्राही पंक्तियाँ
साधुवाद
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवो विसर्जित नहीं हुआ, उसमें -
जवाब देंहटाएंअभी तक बहुत कुछ है बाक़ी,
बार बार पराजित होने
का उसे ज़रा भी
नहीं है कोई
झेंप, सुंदर पंक्तियाँ..।गूढ़ अभिव्यक्ति..।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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