लहरों की भाषा बहुत गूढ़ हैं फिर
भी समुद्र पढ़ना चाहता है
उसे गहराई तक, हर
बार विफल होता
है, लेकिन
उसका
ये प्रयास, साहिल की झाग मिटा
देती है हर बार, शब्दों के
सजल विन्यास, वो
कोई प्रेम था या
कोई कायिक
सम्मोह,
वक्ष -
स्थल पर छोड़ गया कोई आदिम
मौन विद्रोह, किनारे में बिखरे
पड़े हैं, कितने ही मृत शंख,
सीप, प्रवाल, समय
छीन लेता है यूँ
ही अपना
शुल्क,
व छोड़ जाता हैै आईने के अंदर
अंतहीन खोह, धृतराष्ट्र की
तरह हम करते हैं मृत
दुर्योधन की अथक
तलाश, बिम्ब
मोह जाता
नहीं
अनायास, साहिल की झाग - -
मिटा देती है हर बार,
शब्दों के सजल
विन्यास।
* *
- - शांतनु सान्याल
02 दिसंबर, 2020
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