पांच उंगलियां बराबर नहीं होती,
ताकि मुट्ठी को आसानी से
बंद किया जा सके,
बस यहीं पे
आकर
समाजतंत्र, साबुन की तरह हाथ
से जाता है फिसल, श्रेणी -
भेद का प्रारम्भ जन्म
से ही शुरू हो जाता
है, उत्तरोत्तर
शाखा -
प्रशाखाओं से कहीं बहुत आगे -
वो जाता है निकल। बस
हम दिवार पर लिखे
स्लोगन की
तरह,
बड़ी ख़ामोशी से देखते रहते हैं
सभी हादसे, वास्तव में
हम सब कुछ जान
कर भी अनजान
सा भान
करते
हैं, नर नवजात के पैदा होने पर
समानता का मुखौटा उतार
कर, ऊपर वाले का
शुक्रिया अदा
करते
हैं, इसी तरह से हर एक मोड़ पर
पौरुष का मिथ्या बखान
करते हैं, सब कुछ
जान कर भी
अनजान
सा
भान करते हैं। जीवन बेल की है
अपनी ही अलग कहानी,
सूखे पत्तों को ख़ुद
वो चाहता है
कि झर
जाए,
ताकि वो नए पत्तों को जन्म
दे पाए, आज के कृष्ण को
देखा है मैंने, बहुत
ही नज़दीक से,
रौशनी
से
झिलमिलाते हुए सभागार में,
कोई सुदामा, भूले से भी
उसके क़रीब न
जाए - -
* *
- - शांतनु सान्याल
11 दिसंबर, 2020
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
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