27 दिसंबर, 2020

संदूक बंद स्मृतियां - -

हमेशा की तरह, ये साल भी आख़िर
गुज़र ही गया, अंजुरी से बह कर
एक सजल अहसास, कोहनी
के रास्ते, स्मृति स्रोत
में कहीं, निःशब्द
सा उतर ही
गया,
ये साल भी आख़िर गुज़र ही गया।
हाथों की मुट्ठियां खुली ही रहीं,
हमेशा की तरह, आकाश
इठलाता रहा शाही -
अभिमान से,
असमय
के
प्रहार से बदल गए सभी धर्म कर्म
के पैमाने, सर्वव्यापी सत्य का
धुआं उठता रहा शमशान
से, अहंकार का घट
अंततः, टूट कर
बिखर ही
गया,
ये साल भी आख़िर गुज़र ही गया।
अपने अक्ष में अनवरत घूमता
रहा, समय का अदृश्य
दर्पण, कोलाहल
हो या गहरा
अमन,
संघर्ष का दूसरा नाम ही है जीवन,
जीने की अंतहीन चाह थी
मेरी परछाई, मेरे साथ
ही रही, मैं चाहे
जिधर भी
गया,
ये साल भी आख़िर गुज़र ही गया।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 


14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 28 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत बढ़िया भावनाओं से परिपूर्ण कविता।

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  3. सर्वव्यापी सत्य का
    धुआं उठता रहा शमशान
    से, अहंकार का घट
    अंततः, टूट कर
    बिखर ही
    गया,
    ये साल भी आख़िर गुज़र ही गया।
    बस गुजरे और गुजरे जल्द ये साल...और कभी न लौटे फिर..
    बहुत सुन्दर भावपूर्ण सृजन।

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  4. असमय
    के
    प्रहार से बदल गए सभी धर्म कर्म
    के पैमाने, सर्वव्यापी सत्य का
    धुआं उठता रहा शमशान
    से, अहंकार का घट
    अंततः, टूट कर
    बिखर ही
    गया,
    ये साल भी आख़िर गुज़र ही गया..गुजरे हुए समय को दृश्यमान करती सुंदर रचना..।

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