आंख मूँद कर, तुम निगल रहे हो
खाद्य अखाद्य सब कुछ,
लेकिन, मैं नीलकंठ
नहीं हूँ, कि कर
जाऊं हर
चीज़
को हज़म, मेरी अंतःचेतना अभी
तक है जीवित, वो तमाम
लाल, नील, हरे, गेरु
रंगों से नहीं बुझेगी
ये जठराग्नि,
मुझे ज़रा
ध्यान
से देखो, शैशव से लेकर वार्धक्य
तक है अनवरत मंथर दहन,
अधजले काठ से कुछ
कम नहीं है मेरे
बचे रहने
का
भरम, मैं नीलकंठ नहीं हूँ, कि कर
जाऊं हर चीज़ को हज़म। न
जाने किस हरित प्रदेश
की तुम बात करते
हो, मेरे सीने
से निकल
कर
दूर तक जाती है, एक धूसर सड़क,
जिसके दोनों तरफ हैं सूखे हुए
दरख़्त, जिन के शीर्ष पर
उड़ रहे हैं बहु रंगी
परचम, मैं
नीलकंठ
नहीं
हूँ, कि कर जाऊं हर चीज़ को हज़म।
इस पार और उस पार के मध्य
झूल रहा है, सितारों का
सेतु, ठीक उसके
नीचे है, गाढ़
अंधकार,
जहाँ
बसते हैं, तृतीय जगत के उपेक्षित
लोग, विस्मृत देवताओं का
पुरातन घर, उनका
अपना अलग
है ईमान -
धरम,
मैं
नीलकंठ नहीं हूँ, कि कर जाऊं हर
चीज़ को
हज़म।
* *
- - शांतनु सान्याल
25 दिसंबर, 2020
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
बहुत खूब!उत्कृष्ट रचना। बधाई और शुभकामनाएं। सादर
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएं
जवाब देंहटाएंमैं
नीलकंठ नहीं हूँ, कि कर जाऊं हर
चीज़ को
हज़म।
यथार्थ के साथ ही साफ़गोई....
बेहतरीन कविता
साधुवाद 🙏🌹🙏
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 25 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२६-१२-२०२०) को 'यादें' (चर्चा अंक- ३९२७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंयथार्थ ! तृतीय जगत का सटीक चित्र उकेरा है आपने।
जवाब देंहटाएंसाथ ही अब समझोता नहीं करेगा ये जगत ।
सार्थक सुंदर।
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंचाहे अनचाहे बनते रहते हैं नीलकंठ
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
ह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही बढ़िया लिखे है🌻
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबेहतरीन ! आने वाला समय आपके और आपके सपूर्ण परिवार के लिए मंगलमात हो
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना।सादर।
जवाब देंहटाएंह्रदय तल से आभार - - नमन सह।
हटाएं