07 दिसंबर, 2020

सुदूर आत्म प्रदेश - -

शीतकाल के अंत में, जब महुआ पेड़
के पल्लव विहीन टहनियों में
उभरते हैं पुष्प शंकु, उस
पतझर के मौसम
में अरण्य -
नदी
ख़ुद को अपने ही में समेट कर बहे
जाती है, सुदूर प्रिय मिलन
की चाह में, उन्हीं मंथर
धाराओं में जीवन
खोजता है,
उसके
सीने के गुप्त जलस्रोत, शिलाखंडों
के नीचे लुप्तप्राय द्वीप,
उतरती धूप रहना
चाहती है कुछ
पलों के
लिए
उसके अंतरतम की पनाह में, सुदूर
प्रिय मिलन की चाह में। कुछ
सिक्त भावनाओं के अर्घ्य
उभर आते हैं, उसके
नयन कोरों में,
कोई भग्न
मंदिर
चाहता है पुनरुद्धार, चाहते हैं प्राण
प्रतिष्ठा कुछ शून्य विग्रह -
स्थान, कुछ दिव्य
प्रणय करते हैं,
नव जीवन
का
आह्वान, शनैः शनैः नदी बढ़ती -
जाती है मुहाने की ओर,
अंततः उसे मिलती
है मुक्ति महा -
सागर के
अथाह
में,
सुदूर प्रिय मिलन की चाह में - - -

* *
- - शांतनु सान्याल
     


 





24 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 07 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-12-20) को "संयुक्त परिवार" (चर्चा अंक- 3909) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
  3. कोई भग्न
    मंदिर
    चाहता है पुनरुद्धार, चाहते हैं प्राण
    प्रतिष्ठा कुछ शून्य विग्रह -
    स्थान, कुछ दिव्य
    प्रणय करते हैं,
    नव जीवन
    का.....

    बहुत सुंदर,
    नयनाभिराम चित्रणयुक्त मनोरम रचना 🙏

    जवाब देंहटाएं
  4. मुक्ति की आकांक्षा सरल है किंतु मुक्त होना आसान नहीं...।
    अति सुंदर लेखन सर। भावपूर्ण प्रवाह।
    सादर प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
  5. आदरणीय शांतनु जी, आपकी मुक्त छंद की छंदमुक्त गद्यनुमा कविता में सुंदर शब्दचित्र उकेरे गए हैं। साधुवाद! आपकी ये पक्तियाँ बहुत सुंदर लगीं:
    अंततः उसे मिलती
    है मुक्ति महा -
    सागर के
    अथाह
    में,
    सुदूर प्रिय मिलन की चाह में - - -
    --ब्रजेन्द्रनाथ

    जवाब देंहटाएं

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past