04 दिसंबर, 2020

अविरत प्रयाण - -

गले लगाने की कला जिसे आ जाए,
वही बंजर ज़मीन पर जीवन
बीज उगाए, दुःख - दर्द
के झंझा आते
जाते रहे,
साथ
अपने अक्सर बरसात को भी लाते
रहे। वो प्रतिरोध पत्थर था
जिसे हटाना आसान
न था, मैंने उसे
लांघना
ही
उचित समझा, बस उसी जगह से
मेरा सफ़र शुरू हुआ, राह में न
जाने कितने, कुछ पक्के,
कुछ कच्चे, मक़ाम
आते - जाते
रहे,
समय की भट्ठी में, भीगे सपनों के
असंख्य सुराही, हम पकाते
रहे। गंतव्य बिंदु अपना
परिचय पत्र अक्सर
छुपाती रही, मृग
जल की
तरह
अक्सर, रास्ता भटकाती रही - -
लेकिन न रुका ज़िन्दगी का
कारवां, चंद्र विहीन
रात में भी तारे,
उजालों
की
दिशा दिखलाते रहे, दुःख - दर्द के
झंझा आते जाते रहे।

* *
- - शांतनु सान्याल
 

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