21 दिसंबर, 2020

अन्तःस्थल में कहीं - -

धुंध ही धुंध है जिधर नज़र जाए,
निःशब्द सा है, अदृश्य बहता
हुआ आदिम झरना,
मीठी धूप की
यादें यूँ
तो
हैं काइयों में ढकी छुपी, कुछ ऊँचे
चिनारों की तरह चाहती हैं
बादलों से दिल की
बात कहना,
मौन
सा है, अदृश्य बहता हुआ आदिम
झरना। समय के कोहरे में
सभी एक दिन, इसी
तरह से ही खो
जातें
हैं, हिमयुगीन किस्से कहानियां,
टूटे चश्मे का कांच, रुकी
हुई ग्रामाफोन की
सुई पर कोई
पुराना
गीत, मद्धम, मद्धम सुरों में रूह
को छूती हुई, किसी की गर्म
साँसों की, हलकी हलकी
सी आंच, खुली इन
हथेलियों में
सिर्फ़ रह
जाते हैं
शून्यता के अहसास दूर उड़े जा
रहीं न जाने कहाँ, रेशमी
परों की तितलियाँ,
इसी तरह से
ही खो
जातें हैं, सभी हिमयुगीन किस्से
कहानियां। झूलते बरामदों
में क्या अभी तक हैं
विगत मधुऋतु
की छुअन,
छू रही
है अंतरतम को झुक कर गुलमोहर
की टहनियां, इतना कुछ मिलने
के बाद भी अधूरा ही रहता
है ये जीवन, दरअसल
चाहतों की सूचि
में हम भूल
जाते हैं
बहुत कुछ लिखना, यही वजह है
कि सूना रहता है अन्तःस्थल
का वृन्दावन, अधूरा ही
रहता है अंततः ये
जीवन - -

* *
- - शांतनु सान्याल  

 
 
 

26 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 22 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. सादर नमस्कार ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-12-20) को "शब्द" (चर्चा अंक- 3923) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    --
    कामिनी सिन्हा

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  3. बहुत-बहुत सुंदर । मर्मस्पर्शी ।
    कौन नहीं कहना चाहता
    बादलों से दिल की बात ।

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