वृन्त चाह कर भी नहीं रोक पाता,
पंखुड़ियों का झरना, सूर्य के 
अश्व रुकते हैं नदी के 
पश्चिमी उपकूल 
में, समय 
का 
पहिया उड़ा जाता है सभी कल्पित 
चरित्र, गोधूलि की धूल में। 
संध्या उतरती है, सधे 
पांव, टिमटिमाती 
हुई, डिबरी के 
अहाते,
छूना 
चाहता हूँ मैं, गिरते हुए सूखे पत्ते 
की रूह को नज़दीक से, कैंची 
मारता हुआ अंधकार, धीरे 
धीरे रात को गति दे 
चुका है, पीपल 
के पात हिल 
रहे हैं 
या 
स्थिर हैं, कहना मुश्किल है ये 
छायावृत्त दिखते हैं, बड़ी 
ही अजीब से। चूल्हे का 
धुआं है उठता हुआ,
या सिलबट्टे 
में पिसी 
हुई 
ज़िन्दगी केवल स्वादों में ढल कर 
रह गई, कुछ सुख थे पहुँच के 
बाहर, चलो अच्छा ही 
हुआ जेब थी फटी 
हुई, झूलने 
दो यूँ 
ही 
शून्य में ख़्वाबों को, देख कर मेले 
की वास्तविकता, बची कुचि 
दिल की हसरत भी 
निकल कर 
रह गई। 
* * 
- - शांतनु सान्याल 
 
 
01 दिसंबर, 2020
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वाह सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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