24 दिसंबर, 2020

मौनाभिनय - -

समय के अंगविक्षेप में दंभ रहता
है भरा, निःशब्द मंचित हो
कर छोड़ जाता है सब
कुछ जहां के तहां,
मुड़ कर वो
देखता
भी
नहीं कि कौन हो तुम, दिग्विजयी
सम्राट या कोई रमता जोगी,
उसे परवाह नहीं, चलता
रहा, या दिगंत से
पूर्व थम गया
ज़िन्दगी
का
कारवां, समय छोड़ जाता है सब
कुछ जहां के तहां। हर सांस
है बंधी प्रयोजन की
डोर से, सघन
अंधकार
में पड़े
रहते हैं सभी रिक्त मधुकोष, बिखरे
पड़े होते हैं, टूटे हुए संचय पात्र
पृथ्वी पर, मुस्कुराता सा
लगता है, उन पलों में
विस्तीर्ण नीला
आसमां,
समय
छोड़ जाता है सब कुछ जहां के
तहां। गतिहीन इतिहास
खोजता है, छाया
चित्रों में,
किसी
निर्बोध शिशु की तरह समय का
मूल स्रोत, समय कर जाता
है, उसे अनगनित
मिथकों से
ओतप्रोत,
समय
जा
चुका है बहुत दूर, वो नहीं लौटेगा
दोबारा यहां - -


* *
- - शांतनु सान्याल




 
 

18 टिप्‍पणियां:

  1. उसे अनगनित
    मिथकों से
    ओतप्रोत,
    समय
    जा
    चुका है बहुत दूर, वो नहीं लौटेगा
    दोबारा यहां ...
    सुंदर रचना।
    सादर।

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  2. कौन हो तुम, दिग्विजयी
    सम्राट या कोई रमता जोगी,
    उसे परवाह नहीं, चलता
    रहा, या दिगंत से
    पूर्व थम गया
    ज़िन्दगी
    का
    कारवां,..नायाब पंक्तियाँ..सशक्त और सुंदर कृति..।

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  3. बहुत ही शानदार।
    समय का मौनाभिनय सब समेट कर लें जाता है अपने संग ।

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