झींगुर न जाने क्या गीत गाते हैं,
कुछ नए गीत लिख कर रखना,
जाते जाते श्वेतपर्णी
मेघ दल का है
ये कहना,
खुली आँखों के ख़्वाब भरी दुपहरी
में आवारा घूमते हैं, बेवजह
सारा मोहल्ला, कभी
कभी अच्छा
लगता
है
सहज बात को यूँ ही घुमा फिरा
के कहना, न जाने कौन
आवाज़ दिए जाता
है छत की
सीमा
से,
कटी पतंग उलझी हुई है कबूतर
की टांग से, दिल चाहता
अपने हाथों से हटा
दिए जाएं, नभ
के सीने
पर
तैरते हुए, बेमौसम के सघन मेघ,
धीरे से खोलें बंद दरवाज़े और
दौड़ जाएं, घुटनों भरी
अरण्य नदी की
गोद में, फ़र्श
पर उकेरें
कुल पच्चीस बंद घर, कौड़ियों से
जीतें ज़िन्दगी का सफ़र,
हर वक़्त नहीं होता
सुरीला, फिर
भी चलो
एक
बार पुनः जाएं, सुख नामी पखेरू
की खोज में, कभी कभी
अध खुले दरवाज़े
की ओट में
जल्दी
से
पोशाक बदलना अच्छा लगता है,
शैशव व पूर्णवयस्क के मध्य
सेतु की तरह बेवजह
जुड़ना अच्छा
लगता
है।
* *
- - शांतनु सान्याल
11 दिसंबर, 2020
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सुन्दर।
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचन आज शनिवार 5 दिसंबर 2020 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! ,
हृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-12-2020) को "मैंने प्यार किया है" (चर्चा अंक- 3914) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
हृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुंदर सराहनीय सृजन सर...बार बार बढ़ने को आग्रह करता।
जवाब देंहटाएंसादर
आपकी अनमोल टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार - - नमन सह।
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