उस अलिंद से उतरती, दूधिया रौशनी
में, कितनी ही परछाइयों ने दम
तोड़ दिया, समारोह के अंत
में, ख़ाली कुर्सियों की
मौन पंक्तियों
में, जीवन
पाता
है, कुछ ख़ुश्बुओं के उतरन, जिन्हें -
लोगों ने भरपूर उपयोग किया,
और बेतरतीब से छोड़
दिया, कितनी ही
परछाइयों ने
दम तोड़
दिया।
कुछ भावनाएं थे अस्तर, जिन्हें ओढ़ा
गया, बहुत कुछ छुपाने के लिए,
ताकि वास्तविकता कहीं
प्रकाशित न हो जाए,
कितने रिश्तों
में छुपे
होते
हैं अति सूक्ष्म गाँठ, जिन्हें लोग बड़ी
ख़ूबसूरती से, सभ्यता की गठरी
में छुपा रखते हैं, उजाले -
अंधेरे के मध्य कहीं,
वो गोपन लेन
देन खुल के
यूँ ही
उद्भासित न हो जाए, वास्तविकता
कहीं प्रकाशित न हो जाए।
रात के स्थिर जल में
डूबते और उभरते
रहे न जाने
कितने
ही
घावों के बहते हुए द्वीप, शून्य की
है अपनी जगह अलग विशेषता,
गुणन विधि में शून्यता
का विस्तार भूला
देता है सब -
व्यथा,
उस खोखले समय में ख़ुद के सिवा
कोई नहीं होता जीवन के
समीप, डूबते और
उभरते रहे न
जाने
कितने ही घावों के बहते हुए द्वीप।
* *
- - शांतनु सान्याल
10 दिसंबर, 2020
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह ! बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंक्या खूब लिखा है आपने। हमेशा की तरह शानदार व प्रभावशाली रचना। बहुत-बहुत शुभकामनाएँ आदरणीय शान्तनु जी।
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंबेहतरीन सृजन
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
सान्याल जी 🙏
- डॉ. वर्षा सिंह
हृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएं