01 दिसंबर, 2020

अंदरूनी सौंदर्य - -

उजान स्रोत के सभी थे सहयात्री,
प्रतिकूल बहाव में दूर तक
कोई न था, दोनों तट -
बंधों से फिर भी
आती रही
शंख -
ध्वनि, ग्रह नक्षत्रों की भूल भुलैया
में विज्ञान चाहे, जितना भी
गोता लगाए, डूबते पलों
में कोई अमूर्त सत्ता
अदृश्य हाथों
से हमें
उबार लाए, अंतरतम से निकली
प्रार्थना, कभी होती नहीं
अनसुनी, दोनों तट -
बंधों से फिर भी
आती रही
शंख -
ध्वनि। न कोई सेतु न कोई घाट
न कोई दिशा यंत्र, अंतर्मन
की पूजा चिरंतन न
कोई पोथी न
ही पुराण
कुछ
है तो सिर्फ़ जिओ और जीने दो
का अमूल्य मन्त्र, बाह्य
सौन्दर्य नहीं अनंत,
प्रकृत सुंदरता
होती है
सिर्फ़
अंदरूनी, अंतरतम से निकली
प्रार्थना, कभी होती नहीं
अनसुनी। एकाकी
दरअसल मैं
कभी न
रहा,
हालांकि, बहुधा मेरे आसपास
कोई न था, आवश्यकता
से अधिक वर्चस्व
की चाहत ही
कर जाती
है मन
को
बोझिल, वो निराकार रह कर
भी होता है शामिल हमारे
अस्तित्व के अंदर,
फिर क्यों
इतनी
व्याकुलता, जो कुछ इस पल
में पा लिया, वही मेरी है
नियति, इस जीवन
का हूँ मैं अनंत
ऋणी,
अंतरतम से निकली प्रार्थना,
कभी होती नहीं
अनसुनी।

* *
- - शांतनु सान्याल

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