अंतरस्थ मेरे है, एक मुलायम सा
प्रदेश, जो बिखरने नहीं देता
मुझे, समेट के रखता
है, अपने सीने
के अदृश्य
नीड़
में, उन असमय के लड़खड़ाहटों
में, वो मेरा स्वागत करता है,
अक्षय संवेदनाओं से,
अंदर के राग -
अनुराग
को,
वो कर जाता है संतुलित, मैं पुनः
बढ़ जाता हूँ अंतहीन भीड़
में, वो समेट के रखता
है, अपने सीने
के अदृश्य
नीड़
में।
वो मुझे स्वीकारता है, जैसा भी हूँ
मैं, वही उबारता है, मुझे सभी
टूट फूट से, ताकि मैं
दुनिया का पुनः
उन्मुक्त
रूप
से
अभिवादन कर सकूँ, बिखराव के
उस पार निर्माण की सुबह
देख सकूँ, वो श्वास
तन्तुओं से बह
कर रहता है
अंतर्लीन,
शास्वत सत्य की तरह, उर्ध्वमुखी
मेरे रीढ़ में, वो समेट के रखता
है, अपने सीने के अदृश्य
नीड़ में। आज और
कल के संधि
क्षणों में
वो
रचता है दिव्य सेतु, दुःख - सुख के
दो सन्मुख स्तम्भों के मध्य,
सभी विकलांग पथ हो
जाते हैं, सरल सुगम,
सभी चेहरे तब
लगते हैं
ख़ुद
जैसे, हम खो जाते हैं तब अपनी ही
भीड़ में, वो समेट के रखता है,
अपने सीने के अदृश्य
नीड़ में।
* *
- - शांतनु सान्याल
19 दिसंबर, 2020
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
-
कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...
वाह, बहुत सुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 20 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवो
जवाब देंहटाएंरचता है दिव्य सेतु, दुःख - सुख के
दो सन्मुख स्तम्भों के मध्य,
सभी विकलांग पथ हो
जाते हैं, सरल सुगम,
सभी चेहरे तब
लगते हैं
ख़ुद
जैसे,..बहुत सुंदर,सशक्त रचना भावों से भरी हुई..
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंहमारे अन्तरस्थ में स्थित यह प्रदेश इतना मजबूत नीड़ तभी हमें प्रदान करता है जब हम स्वयं इसको स्वस्थ उज्जवल एवं दिव्य भावों से पोषित करते हैं....।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सार्थक एवं सारगर्भित सृजन
वाह!!!
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंहम खो जाते हैं तब अपनी ही
जवाब देंहटाएंभीड़ में, वो समेट के रखता है,
अपने सीने के अदृश्य
नीड़ में....
अकसर यही होता है। बहुत सुंदर रचना...🙏
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंअंतरस्थ मेरे है, एक मुलायम सा
जवाब देंहटाएंप्रदेश, जो बिखरने नहीं देता
मुझे, समेट के रखता
है, अपने सीने
के अदृश्य
नीड़
में, ..
बहुत गहन भाव लिए अत्यंत सुन्दर सृजन ।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंहमेशा की तरह बेहतरीन। आपकी कविता यात्रा प्रभावशाली तरीके से बाधाविहीन यूँ ही चलती रहे।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएं