19 दिसंबर, 2020

अस्तित्व के भीतर - -

अंतरस्थ मेरे है, एक मुलायम सा
प्रदेश, जो बिखरने नहीं देता
मुझे, समेट के रखता
है, अपने सीने
के अदृश्य
नीड़
में, उन असमय के लड़खड़ाहटों
में, वो मेरा स्वागत करता है,
अक्षय संवेदनाओं से,
अंदर के राग -
अनुराग
को,
वो कर जाता है संतुलित, मैं पुनः
बढ़ जाता हूँ अंतहीन भीड़
में, वो समेट के रखता
है, अपने सीने
के अदृश्य
नीड़
में।
वो मुझे स्वीकारता है, जैसा भी हूँ
मैं, वही उबारता है, मुझे सभी
टूट फूट से, ताकि मैं
दुनिया का पुनः
उन्मुक्त
रूप
से
अभिवादन कर सकूँ, बिखराव के
उस पार निर्माण की सुबह
देख सकूँ, वो श्वास
तन्तुओं से बह
कर रहता है
अंतर्लीन,  
शास्वत सत्य की तरह, उर्ध्वमुखी
मेरे रीढ़ में, वो समेट के रखता
है, अपने सीने के अदृश्य
नीड़ में। आज और
कल के संधि
क्षणों में
वो
रचता है दिव्य सेतु, दुःख - सुख के
दो सन्मुख स्तम्भों के मध्य,
सभी विकलांग पथ हो
जाते हैं, सरल सुगम,
सभी चेहरे तब
लगते हैं
ख़ुद
जैसे, हम खो जाते हैं तब अपनी ही
भीड़ में, वो समेट के रखता है,
अपने सीने के अदृश्य
नीड़ में।

* *
- - शांतनु सान्याल



 
 
 

 

 


18 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 20 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. वो
    रचता है दिव्य सेतु, दुःख - सुख के
    दो सन्मुख स्तम्भों के मध्य,
    सभी विकलांग पथ हो
    जाते हैं, सरल सुगम,
    सभी चेहरे तब
    लगते हैं
    ख़ुद
    जैसे,..बहुत सुंदर,सशक्त रचना भावों से भरी हुई..

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  3. हमारे अन्तरस्थ में स्थित यह प्रदेश इतना मजबूत नीड़ तभी हमें प्रदान करता है जब हम स्वयं इसको स्वस्थ उज्जवल एवं दिव्य भावों से पोषित करते हैं....।
    बहुत सुन्दर सार्थक एवं सारगर्भित सृजन
    वाह!!!

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  4. हम खो जाते हैं तब अपनी ही
    भीड़ में, वो समेट के रखता है,
    अपने सीने के अदृश्य
    नीड़ में....

    अकसर यही होता है। बहुत सुंदर रचना...🙏

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  5. अंतरस्थ मेरे है, एक मुलायम सा
    प्रदेश, जो बिखरने नहीं देता
    मुझे, समेट के रखता
    है, अपने सीने
    के अदृश्य
    नीड़
    में, ..
    बहुत गहन भाव लिए अत्यंत सुन्दर सृजन ।

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  6. हमेशा की तरह बेहतरीन। आपकी कविता यात्रा प्रभावशाली तरीके से बाधाविहीन यूँ ही चलती रहे।

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