न जाने कितने जन्म - मृत्यु, सुख -
दुःख, योग - वियोग, मान -
अपमान, अशेष ही रहे,
फिर भी चाहतों
के असंख्य
शून्य
स्थान, जो कुछ मिलता है उसे हम,
एक तरफ हटाए रखते हैं, उम्र
ख़त्म हो जाती है लेकिन
नहीं भरता संचय
का संदूक,
तहों
की रेखाएं आख़िरकार छोड़ जातें हैं
वृद्ध निशान, अशेष ही रहे फिर
भी चाहतों के असंख्य
शून्य स्थान, कुछ
मुहूर्त न थे
आकर्षक
लिहाज़ा मैंने दहलीज़ से उन्हें लौटा
दिया, वो अक्स थे मेरे नक़ाब -
विहीन अंतःसौंदर्य के,
उम्र की अंतिम
पड़ाव तक
ढूंढा
उसे, पा न सका दोबारा उनका कोई
अवस्थान, अशेष ही रहे फिर भी
चाहतों के असंख्य शून्य
स्थान, कितनी ही
बार एक
सुबह
से दूसरी सुबह तक करता रहा मैं
परछाइयों का पीछा, कभी
स्तम्भ विहीन उड़ान
पुल से हो कर,
कभी
कटी पतंग की डोर बन कर, उड़ता
रहा अविराम, कहीं ज़मीन
पर न गिर जाऊं
अचेत हो
कर,
इस भय से मैंने देखा नहीं मेरे पांव
की ज़मीं, धंसता गया अपने ही
अंदर, मुझे पता ही न चला
जीवन का अवसान,
अशेष ही रहे
फिर भी
चाहतों
के असंख्य शून्य स्थान - - - - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
14 दिसंबर, 2020
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 16 दिसम्बर 2020 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (15-12-20) को "कुहरा पसरा आज चमन में" (चर्चा अंक 3916) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंउम्दा.
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
हटाएंहार्दिक आभार - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंचाहतों के असंख्य शून्य स्थान का रह जाना अवसान तक यानी शून्य में मिल जाने तक
जवाब देंहटाएंकेवल कोशिश अपने वश में परिणाम तय करना तो उसी विराट शून्य के वश में
साधुवाद इस रचना हेतु
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएं,
जवाब देंहटाएंइस भय से मैंने देखा नहीं मेरे पांव
की ज़मीं, धंसता गया अपने ही
अंदर, मुझे पता ही न चला
जीवन का अवसान,
अशेष ही रहे
फिर भी
चाहतों
के असंख्य शून्य स्थान - - बहुत खूब, जीवन सार समझाती सुन्दर रचना..।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत ही सुन्दर।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह शांंतनु जी, क्या खूब लिखा है ...आध्यात्मिक कवि की संपूर्ण अभिव्यक्ति ...वाह
जवाब देंहटाएंकुछ
मुहूर्त न थे
आकर्षक
लिहाज़ा मैंने दहलीज़ से उन्हें लौटा
दिया, वो अक्स थे मेरे नक़ाब -
विहीन अंतःसौंदर्य के
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंअंतःसौंदर्य झलक रहा है । आभार ।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंलेखनी प्रवाह विचार मंथन को प्रेरित करते हैं।
जवाब देंहटाएंगहन भावपूर्ण अभिव्यक्ति सर।
सादर प्रणाम।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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