03 दिसंबर, 2020

एक और मौक़ा - -

कमज़ोरी ग़र ज़ाहिर हो जाए तो
ज़माने को खिलौना मिल
जाएगा, लाज़िम था
अंधेरे से निकल
कर उजाले
में खुल
के
सांस लेना, उसकी हँसी में तंज़
था, मधु में नीम घुली हुई,
धीरे - धीरे हमने भी
आख़िर सीख ही
लिया, मीठी
ज़बान को
बोलने
की
अदा, चाँदनी में धुली हुई, न
इस में कोई जीत है न
ही कोई हार, हर
एक का है ये
पैदाइश
हक़
कि उसे जीने का मौक़ा मिले,
कौन नहीं चाहेगा खुली
हवाओं में पुरसुकूं
जीवन जीना,
ज़रूरी है
उसे
एक मुश्त रौशनी के लिए एक
अदद झरोखा मिले,
दोबारा उसे जीने
का मौक़ा
मिले।

* *
- - शांतनु सान्याल  

 

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