वो स्वर्ण मृग जिसे मैं खोजता
रहा न जाने कहाँ कहाँ,
गिरि कंदराओं से
सघन अरण्य
तक,
वो था अंतःशील मेरे ह्रदय के
अंदर, वो कुछ और नहीं,
उन्मुक्त प्राणों से
हंसने का है
सुख, हर
हाल
में आनंदित रहने का अनंत
सुख, मैं भटकता रहा
बेवजह कोहरे के
देश में, सुख
की धूप
थी
चिरस्थायी मेरे अभ्यंतर,वो
था अंतःशील मेरे ह्रदय
के अंदर। दरअसल
मैं देखता रहा
दुनिया
को
एक प्रचलित बाह्य दृष्टि से,
भीतर मेरे गहराता गया
अभिलाषों का अशेष
अंधकार, क्रमशः
मैं गढ़ता
गया
कल्पित सुख का संसार, जब
कि मेरे अंतर्मन में था,
आलोकमय लहरों
का समंदर,
वो था
अंतःशील मेरे ह्रदय के अंदर।
* *
- - शांतनु सान्याल
06 दिसंबर, 2020
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वाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंसदैव की भाँति सुन्दर रचना।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंवो स्वर्ण मृग जिसे मैं खोजता
जवाब देंहटाएंरहा न जाने कहाँ कहाँ,
गिरि कंदराओं से
सघन अरण्य
तक,
वो था अंतःशील मेरे ह्रदय के
अंदर, वो कुछ और नहीं,
उन्मुक्त प्राणों से
हंसने का है
सुख, हर
हाल
में आनंदित रहने का अनंत
सुख, मैं भटकता रहा
बेवजह कोहरे के
देश में,.....।बहुत ख़ूब..गूढ़ और सुंदर अभिव्यक्ति...।
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत-बहुत सुंदर रचना। आपकी रचनाओं में एक विशेष प्रवाह है। साधुवाद आदरणीय शान्तनु जी। शुभ प्रभात।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
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