17 दिसंबर, 2020

आंतरिक क्षरण - -

निर्वाक पृथ्वी, निस्तेज बुझा सा
आकाश, कांधे में लिए
जन्मों का ऋण,
रात को
फिर
है गुज़रना, बियाबां के उस पार,
निष्ठुर, नियति के नाट्य -
मंच पर उठने को है
सौभिक यवनिका,
वही अमोघ
खेल
कुछ प्रच्छन्न, कुछ प्रकाशित -
वही हास्य क्रंदन बारम्बार,
रात को फिर है गुज़रना,
बियाबां के उस पार।
कुछ स्मृतियाँ
अमर्त्य
होती
हैं, परछाइयों की तरह करती हैं
पीछा, कुछ अभिमान, घावों
को कभी भरने नहीं देते,
अदृश्य निःश्वास
की तरह
सहसा
छू
जाते हैं ग्रीवा प्रदेश, फिर सारी
रात, जागे बैठा रहता है
हमारे अभ्यंतर का
अचल अहंकार,
रात को
फिर
है गुज़रना, बियाबां के उस पार।
ये ज्ञात है, सभी को अच्छी
तरह, कि ज़िन्दगी का
भरोसा, कुछ भी
नहीं, न
जाने
क्यूँ, कई बार मुख़ातिब हो कर
भी बने रहते हैं, हम एक
दूसरे से अजनबी,
हर चीज़ को,
एक न
एक
दिन, जब ख़त्म होना है, फिर
किस लिए इतना घात -
प्रतिघात, अनवरत
अंदर - बाहर,
प्राणों पर
प्रहार, रात को फिर है गुज़रना,
बियाबां के उस पार।

* *
- - शांतनु सान्याल


14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 17 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. कुछ स्मृतियाँ
    अमर्त्य
    होती
    हैं, परछाइयों की तरह करती हैं
    पीछा, कुछ अभिमान, घावों
    को कभी भरने नहीं देते,
    अदृश्य निःश्वास
    की तरह
    सहसा
    छू
    जाते हैं ग्रीवा प्रदेश, बहुत ख़ूब...जीवन दर्शन से ओतप्रोत कृति..।

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