इस शहर के अंदर हैं न जाने कितने
ही शहर, प्याज के परतों में हैं
बंद कुछ अश्रु जल, देखना
है इसे तो चलना होगा
मीलों पैदल, सब
कुछ बयां
नहीं
कर सकती दूरबीन की नज़र, मेरी
मातृभाषा है केवल नीरवता, मैं
सुन्दर शब्दों में लिख नहीं
सकता, अंधकार
में बसने वालों
की आत्म -
कथा,
रात है एक उग्र नदी, न जाने किस
की खोज में, हर पल उन्माद
सी है भटकती, दुर्ग के
अन्दर हैं, अगणित
अणु दुर्ग, देह के
अंतःपुर
में हैं
असंख्य देहांतरण, पुनरपि जननं -
पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी
जठरे शयनम् - - शेष -
प्रहर अपनी धुन
में मंत्रोच्चार
के साथ
दूर
दिगंत की ओर एकाकी बढ़ा जा रहा
है, घने कोहरे में प्रेम - घृणा,
अपने - पराये, हिसाब -
किताब के परत
दर परत
सभी
बिखर चले हैं, समय, अस्फुट लहज़े
में बड़बड़ाते हुए कहता है, "तुम
कापुरुष से कालपुरुष बनों,
जीवन के इन अवशिष्ट
पृष्ठों को मुखरित
करो, भाषाहीन
अस्तित्व
को
पुनरुच्चारित करो; अंधकार से ही
उदय होता है उजालों का शहर,
तुम्हें लौट आना होगा
हर हाल में इसी
रहगुज़र"
इस
शहर के अंदर हैं न जाने कितने ही
शहर - -
* *
- - शांतनु सान्याल
10 दिसंबर, 2020
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जीवन दर्शन से परिपूर्ण रचना..।
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
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