बिहान और साँझ के दरमियान 
बह चुका है एक अजस्र जल -
धार, अब शब्दहीनता  
के साथ बातें 
करता है
गाढ़ 
अंधकार। प्रस्रव मर्मघातों पर 
रात्रि रख चली है, ओस में 
भीगे हुए कुछ सजल 
अनुकंपाओं के 
कपास,
मौन 
उड़ान सेतु के नीचे शीतकातर 
ख़्वाब खोजते हैं, अज्ञात 
सीने के सराय किसी 
निद्रालु आँखों के 
आसपास। 
अंतिम 
प्रहर खड़ा है सामने लेकर कुछ 
कोरे काग़ज़, मूल्यवान 
विनिमय, कुछ बंधक 
की सामग्री,
असल 
में 
बिना मूल्य के कोई नहीं यहाँ 
किसी का जमानतदार,
दिगंत के अदृश्य 
रौशनी के 
लिए 
जीवन कर देता है शून्य पन्ने 
में हस्ताक्षर, निष्प्राण 
देह पड़ा रहता है 
वसुधा की 
गोद 
में, 
प्राणों का पलायन है बदस्तूर 
कभी इस पार, कभी उस 
पार, मैं समय से बार 
बार कहता हूँ मुझे 
जीना है कुछ 
दिन 
और, लौटाना है मुझे वापसी के 
असंख्य उपहार, मुश्किल 
है यहाँ वलय पाश 
से बचाने 
वाला,
कोई नहीं यहाँ निःस्वार्थ किसी 
का मददगार - -
* * 
- - शांतनु सान्याल  
09 दिसंबर, 2020
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बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंवाह
जवाब देंहटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंजीवन कर देता है शून्य पन्ने
जवाब देंहटाएंमें हस्ताक्षर, निष्प्राण
देह पड़ा रहता है
वसुधा की
गोद
में
एक अटल सत्य...सच में भीड़ में भी एकान्तवास
लाजवाब सृजन
वाह!!!!
तहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
हटाएंतहे दिल से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंमार्मिक लेखन.. सुन्दर
जवाब देंहटाएंहृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
हटाएंसराहनीय लेखन।
जवाब देंहटाएंसादर.प्रणाम सर।
हृदय तल से आपका आभार - - नमन सह।
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