मिलने को तेरे यूँ तो जां तड़पता है,
वही आँगन, वही नदी - पहाड़
का खेल, अब भी तुझे
छूने को जी मेरा
मचलता है,
वो
बारिश की बूंदे वक़्त के खपरैलों से
उतर कर, न जाने कब मेरी
उंगलियों के कोरों से
निकल कर ज़मीं
पे बिखर
गए,
सुदूर पहाड़ियों के वो साँझ बाती न
जाने किधर गए, कोलाहल में
भी रही, निरंतर एक
निभृत शून्यता,
हम जहाँ
गए
जिधर गए। स्मृतिओं का आखेट -
और प्रतिबिम्बों से लुकछुप,
जीवन भर चलता है,
कुछ पल होते
है बहुत
ही
ज़िद्दी, अनवरत रहते हैं साथ, फिर
न जाने क्यों, इन्हें खोने का
सदैव डर रहता है, खोने
पाने का सिलसिला
ताउम्र चलता
है।
* *
- - शांतनु सान्याल
वही आँगन, वही नदी - पहाड़
का खेल, अब भी तुझे
छूने को जी मेरा
मचलता है,
वो
बारिश की बूंदे वक़्त के खपरैलों से
उतर कर, न जाने कब मेरी
उंगलियों के कोरों से
निकल कर ज़मीं
पे बिखर
गए,
सुदूर पहाड़ियों के वो साँझ बाती न
जाने किधर गए, कोलाहल में
भी रही, निरंतर एक
निभृत शून्यता,
हम जहाँ
गए
जिधर गए। स्मृतिओं का आखेट -
और प्रतिबिम्बों से लुकछुप,
जीवन भर चलता है,
कुछ पल होते
है बहुत
ही
ज़िद्दी, अनवरत रहते हैं साथ, फिर
न जाने क्यों, इन्हें खोने का
सदैव डर रहता है, खोने
पाने का सिलसिला
ताउम्र चलता
है।
* *
- - शांतनु सान्याल
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया परम मित्र - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (02-09-2020) को "श्राद्ध पक्ष में कीजिए, विधि-विधान से काज" (चर्चा अंक 3812) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
--
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह ।
जवाब देंहटाएंआ शांतनु सान्याल जी, नमस्ते! बहुत सुंदर सृजन!
जवाब देंहटाएंस्मृतिओं का आखेट -
और प्रतिबिम्बों से लुकछुप,
जीवन भर चलता है,
कुछ पल होते
है बहुत
ही
ज़िद्दी
मैंने आपका ब्लॉग अपने रीडिंग लिस्ट में डाल दिया है। कृपया मेरे ब्लॉग "marmagyanet.blogspot.com" अवश्य विजिट करें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत कराएं। सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ
दिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह ।
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