तुम्हारे वादों में ख़ुदकुशी के सिवा कुछ
भी नहीं, मालूम है हमें मौत खड़ी
है दहलीज़ पे, फिर भी बाहर
तो निकलना ही पड़ेगा
जीने के लिए,
कोई नहीं
था
साथ, जब हम दर ब दर भटके, नहीं
चाहिए तुम्हारा मायावी हाथ
फिर ज़हर पीने के लिए |
वही टूटी चप्पलें,
वही बिखरे
हुए
जिस्म के टुकड़े, हमें याद है सभी फिर
भी हर हाल में जाना होगा, ज़िन्दगी
के लिए उन्हीं राहों में अपना
ख़ून,पानी की तरह
बहाना होगा |
* *
- - शांतनु सान्याल
भी नहीं, मालूम है हमें मौत खड़ी
है दहलीज़ पे, फिर भी बाहर
तो निकलना ही पड़ेगा
जीने के लिए,
कोई नहीं
था
साथ, जब हम दर ब दर भटके, नहीं
चाहिए तुम्हारा मायावी हाथ
फिर ज़हर पीने के लिए |
वही टूटी चप्पलें,
वही बिखरे
हुए
जिस्म के टुकड़े, हमें याद है सभी फिर
भी हर हाल में जाना होगा, ज़िन्दगी
के लिए उन्हीं राहों में अपना
ख़ून,पानी की तरह
बहाना होगा |
* *
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 26 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है आपने ये रचना श्रमवीरों की आजीविका के लिए मज़बूरी के संदर्भ में लिखी है | साधन संपन्न लोगों के वादे ख़ुदकुशी ही कर लेते हैं ,जब वे समय पे प्रत्याशा में डूबे लोगों का साथ नहीं निभाते | बहुत अच्छा लिखते हैं आप | शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से शुक्रिया - - नमन सह।
जवाब देंहटाएं